ऐसे ही मौसम में मगहर

aise hi mausam mein maghar

मनोज मल्हार

मनोज मल्हार

ऐसे ही मौसम में मगहर

मनोज मल्हार

एक बड़ा-सा तालाब।

ख़ामोशी का रंग ओढ़े

पानी का विस्तार बाहर-भीतर...

गुज़रते जा रहे पानी के बड़े-बड़े टुकड़े

कुछ फूस के घर

बहुत दूर नज़र रही एक बस्ती...

पेड़ों की झुरमुटों

पानी के इलाक़ों के बीच से

गुज़रती एक पगडंडी।

बनारस को धताकर

कबीर यहाँ आए होंगे

क्या ऐसे ही मौसम में आए होंगे

चौमासा बीत जाने के मुहूर्त में

आदतन परंपराओं को अँगूठा दिखाते?

इसी पगडंडी से गुज़रे होंगे?

अकेले तो पक्का नहीं रहे होंगे—

सत्संग की आदत जो ठहरी...

रेल शताब्दियों की मानिंद गुज़र रही।

शताब्दियों के झरोखों से दिख से रहे

ठीक से पकड़ में आने वाले दृश्य...

कबीर तेज क़दमों से पगडंडियाँ नापते हुए।

संग धूल धूसरित झीनी-झीनी चदरिया ताने लोग।

न्याय नीर क्षीर विवेक की तरह धवल

श्वेत हंस मुक्त आत्माओं की तरह उड़ान भरते।

हँसता हुआ चाँद...

कबीर के चेहरे पर मुस्कान।

ये ठगों-पाखंडियों से मुक्त धरती का अंश।

घनघोर बारिश!

बिजली की भयंकर कड़क में

एक पाँत में बैठ

सत्संगी भोजन कर रहे...

कबीर के चेहरे पर मुस्कान।

बहुत मुफ़ीद धरती है ये।

ध्यानमग्न से ख़ूब बड़े-बड़े पेड़

पँछियों के घोंसले

चूज़े माँओं के इंतज़ार में शोर मचाते

सुंदर अंदाज़ देते

वृक्षों की उम्रदराज़ डालें, पत्ते, जटाएँ

हवा में लटक गई है

हँसते बच्चों की सी शक्लें।

हल चलता किसान कुछ गा रहा—

मृत्यु गीत नहीं

रसीली भुरभुरी माटी की ख़ुशबू।

मरने के लिए एकदम सही जगह।

ऐसी जगह देह का अंत किया जा सकता है

शरीर को बीज की तरह रोपा जा सकता है।

इस ज़मीन से उग सकते हैं

प्रेम के ढाई आख़र।

ज्यों की त्यों चदरिया धरी जा सकती है

मौलवी–पंडों के आतंक की जगह नहीं ये...

यहाँ सिर्फ़ पनिहारिनें होंगी

लयबद्ध अंदाज़ में

औंधे कुएँ से डोल खींच रही...

शताब्दियों की गति से भागती रेल

झुटपुट से दृश्य दिखाती

मगहर से गुज़र जाती है...

रेल की बिछी पटरियाँ

साफ़ सुथरी काया बन

आगे बढ़ती चली जाती है...

स्रोत :
  • रचनाकार : मनोज मल्हार
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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