आभास

abhas

बाबुषा कोहली

 

कवि का एकांतवास

कविता कुतरती है मेरे रेशमी एकांत को
किसी चंचल चूहे की तरह
मैंने कपड़े को पानी में बदलने का हुनर सीखा
तो चूहों ने झटपट मछली का रूप धर लिया
मैंने पानी को आकाश बनाने की विधि खोजी
तो मछलियों ने पंछियों में बदल जाने का जादू दिखाया

कविता
दरअसल मेरे एकांत पर सेंध लगाती है एक शातिर शिकारी की तरह 
और मैं अपने मौन की रक्षा के लिए
कपड़ा पानी आकाश चंद्रमा प्रपात या पेड़ में बदल जाती हूँ

अपने ही नाम की धमक से थर्राने वालों पर प्रकट नहीं होता सूर्य का रहस्य
टूटे सितारों की धूल बहुरूपियों पर झरती है
कभी-कभी कविता 
मेरा आँगन बुहारने में असमर्थ अधटूटी झाड़ू हो जाती है

मुझे आभास है 
एक दिन इस झाड़ू की सारी सींकें टूट कर धूल में मिल जाएँगी
एक दिन धूप धान धुन लकड़ी लोहा लोग सब गड्डमड्ड हो जाएँगे
एक दिन सारा ज़माना अपना ठिकाना हो जाएगा
एक दिन अपना नाम अपने से अजनबी हो जाएगा
एक दिन अपना पता दयार-ए-नबी हो जाएगा

प्रिय!
क्या तुम्हें झाड़ू के एक सींक से आकाश भेद देने की कला आती है?

मुझे आभास है 
एक दिन मैं पैदा होऊँगी धूल के एक कण से
आकाश चटक-चटक हर ओर झरेगा
एक दिन अपनी माँग में धूप भरूँगी
धूप, 
जो किसी साधक सितारे की धूल है
एक दिन अपनी पाज़ेब में धूप जड़ूँगी
धूप,
जो किसी मायावी नर्तक का घुँघरू है

एक दिन धरती पर धूल का अंधड़ उड़ेगा
एक दिन दिशाएँ अचरज की छनछन से गूँज उठेंगी

एक आदिम नाच होगा 
साँयसाँयसाँय की थाप पर 
नमी दानम कि आख़िरचूँ दम-ए-दीदार मीरक्सम
बसद सामान-ए-रुसवाई सर-ए-बाज़ार मीरक्सम*

लचीले आकाश के कुछ नियम शाश्वत हैं
लय में उगने वाली सुबह को काटनी होती है प्रलय की रात 
बहुरूपिया है धूल
बहुरूपिया चाँद
बहुरूपिया है कविता
बहुरूपिया कवि
बहुरूपिया सितारों की बारात

कविता 
जीवन की कड़ी धूप पर बनती परछाईं है

एक खुली छत है एकांत
झुलसी परछाइयों पर खुलता है सूर्य का रहस्य
बस! इतनी ही है बात
__________________
*I do not know why at last to have a longing look, I dance. You strike the musical instrument and see everytime I dance, In whatever way you cause me to dance. O beloved ! I dance.
—Bulleshah

स्रोत :
  • रचनाकार : बाबुषा कोहली
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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