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नागमती वियोग (चार)

nagamti wiyog (chaar)

मलिक मोहम्मद जायसी

अन्य

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मलिक मोहम्मद जायसी

नागमती वियोग (चार)

मलिक मोहम्मद जायसी

और अधिकमलिक मोहम्मद जायसी

    सावन बरिस मेह अति पानी। सरनि भरइ हौं बिरह झुरानी॥

    लागु पुनर्बसु पीउ देखा। भै बाउरि कहँ कंत सरेखा॥

    रकत आँसु परे भुइँ टूटी। रेंगि चली जनु बीर बहूटी॥

    सखिन्ह रचा पिउ संग हिँडोला। हरियर भुइँ कुसुंभि तन चोला॥

    हिय हिँडोल जस डोले मोरा। बिरह झुलावै देइ झँकोरा॥

    बाट असूझ अथाह गँभीरा। जिउ बाउर भा भवै भँभीरा॥

    जग जल बूड़ि जहाँ लगि ताकी। मोर नाव खेवक बिनु थाकी॥

    परबत समुँद अगम बिच बन बेहड़ घन ढंख।

    किमि करि भेटौं कंत तोहि ना मोहि पाँव पंख॥

    सावन में मेघों से ख़ूब पानी बरसता है। भरन पड़ रही है, फिर भी मैं विरह में सूखती हूँ। पुनर्वसु लग गया। क्या प्रियतम ने उसे नहीं देखा? चतुर प्रियतम कहाँ रहे, यह सोच-सोच मैं बावली हो गई। रक्त के आँसू पृथ्वी पर बिखर रहे हैं। वे ही मानों बोर-बहूटियाँ रेंग रही हैं। मेरी सखियों ने अपने प्रियतमों के साथ हिंडोला डाला है। हरी भूमि देखकर उन्होंने अपना तन कुसुम्मी चोले से सजा लिया है। पर मेरा हृदय हिंडोले की तरह ऊपर नीचे हो रहा है। विरह झकोले देकर उसे झुला रहा है। बाट असूझ, अथाह और गंभीर है। मेरा जी बावला हुआ भँभीरी की भाँति घूम रहा है। जहाँ तक देखती हूँ, संसार जल में डूबा है। मेरी नाव खेवक के बिना ठहरी हुई है।

    पर्वत, अगम समुद्र, बीहड़ वन और घने ढाक के जंगल मेरे और प्रियतम के बीच में हैं। हे प्यारे, तुमसे कैसे मिलूँ? मेरे पाँव हैं, पंख।

    स्रोत :
    • पुस्तक : पदमावत (पृष्ठ 345)
    • रचनाकार : मलिक मोहम्मद जायसी
    • प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन
    • संस्करण : 2007

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