राजविलास

cha.udahmo sa.ndhi

स्वयंभू

स्वयंभू

राजविलास

स्वयंभू

सो वसंत सा रेवा तं जलु। सो दाहिण-मारुफ मिय-सीयलु॥

ताइँ असोय-णाय-चूय-वणइँ। महुअरि-महुर-सरइँ लय-भवणइँ॥

ते धुयगाय ताउ कीरोलिउ। ताउ कुसुम-मंजरि-रिव्छोलिउ॥

ते पल्लव सो कोइल-कलयलु। सो केयइ-केसर-रथ-परिमलु॥

ताउ णबल्लउ भल्लिय-कलियउ। दवणा-मंजरियउ णव-फलियउ॥

ते अंदोला तं जुवईयणु। पेक्खेवि सहस किरणु हरिसिय-मणु॥

सहुँ अंतेउरेण गउ तेत्तहैं। णम्मय पवर महाणइ जेत्तहैं॥

दूरे थिउ आरक्खिय-णिय-वलु। जलु जंतिएँहिं णिरुद्धउ णिम्मलु॥

बद्धिय-हरिसउ जुवइहिँ सरिसउ माहेसरपुर-परमेसरु।

सलिलव्भंतरैं माणस-सरवरैं पइठु सुरिंदु स-अच्छरु॥

वह वसंत, वह रेवा, वह पानी और वही अमृत शीतल दक्षिण-पवन, वे, अशोक, नाग और आम्र के वन। वे मधुकरियों से मधुर और सरस मुखरित लतागृह, वे हिलते-डुलते क्रीड़ारत शुकसमूह, कुसुम मंजरियो की वह कतार। वे किसलय, कोयला का वह कलकल। केतकी पुष्प का वह रस और परिमल। नई जूही का वह चटकना, वह नई दवना मंजरी, वे झूले, वे युवतियाँ, यह सब देखकर माहेश्वर अधिपति सहस्र-किरण का मन प्रसन्न हो उठा। अंतःपुर के साथ वह पहुँचा जहाँ नर्बदा प्रवाह अत्यंत वेगशील था। राजा ने यंत्रों से नदी के स्वच्छ पानी को रुकवा दिया। रक्षकों और सेना को दूर ही छोड़ दिया।

इस तरह माहेश्वर पुर-परमेश्वर वह, सुंदरियों के साथ पानी के भीतर घुसा। मानो इंद्र ही अप्सराओं के साथ मानसरोवर में घुसा हो।

स्रोत :
  • पुस्तक : पउम चरिउ (पृष्ठ 214)
  • संपादक : हंसराज बच्छराज नाहटा
  • रचनाकार : स्वयंभू
  • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ, काशी
  • संस्करण : 1944

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