चित्रावली सौंदर्य : चार

chitraavalii saundarya- (chaara)

उसमान

उसमान

चित्रावली सौंदर्य : चार

उसमान

सुभग सरुप सुरंग अमोला, जन नारंग बरनारि कपोला।

ईं गुर फेसर जानु पिसाए, दोउ मिलाइ कपोल बनाए॥

और सो देखि कपोल लुजाई, मती हीन कछु बरनि जाई।

तेहि पर तिल तो देइ अस सोभा, मधुकर जानु पुछप पर लोभा॥

कै विषी चित्र करत कर धरे, करत उरेहु बूंद खसि परे।

वदन सिंगार सोभ पो पावा, रहेउ बिन पुनि सो उचावा॥

वह तिल जाहि दिष्टि तल परा, भयो स्याम तस तिल-तिल जरा।

नहि चीन्हत फोउ फाहु कहं, जो जग नाहिं होति।

परछाहीं तिल एक की, सब जैजन्ह महं जोति॥

उस श्रेष्ठ नारी के कपोल सुंदर, रूपवान और सुरंगे हैं और ऐसे लगते हैं मानो नारंगी के हिस्से हों। (विधाता ने) इंगुर के साथ केशर को मानो पीसकर उसके दोनो गालों को बनाया है। उसके कपोल अति सुंदर हैं और उनको देखकर मैं बुद्धिहीन उनका कुछ भी वर्णन नहीं कर सकता। उस पर तिल ऐसे शोभायमान हैं मानो भौंरा पुष्पों पर लुभा गया हो। वह अपने गालों पर जब हाथ रख लेती है, उस दृश्य को कैसे चित्रित किया जा सकता है। यदि उसे चित्रित करता हूँ (तो घोर परिश्रम के कारण) पसीने की बूँदें गिर पड़ती है। जब वह अपने मुख का शृंगार कर लेती है तो उसकी शोभा बढ़ जाती है। यदि वह अपना हाथ उठाए तो दिन छिप जाता है। उस तिल पर जिसकी दृष्टि पड़ जाती है, वह तिल-तिलकर जलकर श्याम रंग का हो जाता है। कोई कुछ भी कहे, कोई उसे नहीं पहचानता। उस एक तिल की परछाहीं सब नेत्रों में ज्योति बनकर बसी हुई है। यदि संसार मे वह होती तो संसार के नेत्रों में ज्योति ही होती।

स्रोत :
  • पुस्तक : चित्रावली (पृष्ठ 83)
  • संपादक : माया अग्रवाल
  • प्रकाशन : कला मंदिर
  • संस्करण : 1985

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