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गोनू झा और गाँव वाले

gonu jha aur ganvvale

अन्य

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कमला-बलान नदी के किनारे पर बसा मिथिला का एक गाँव है—भरवारा और बड़की पोखर के निकट जो उंचका डीह है, वहीं गोनू झा का जन्म हुआ था। गोनू झा की चालाकी का क़िस्सा केवल मिथिलांचल में ही नहीं बल्कि पूरे बिहार में प्रसिद्ध है। किसी स्कूल-कॉलेज में पढ़ने नहीं गए पर भगवान का आशीर्वाद था कि वे शास्त्रार्थ में निपुण थे। अपनी हाज़िरजवाबी और चतुराई से बड़े-बड़े विद्वानों को धूल चटा देते थे।

गोनू झा की चालाकी से गाँव के सभी लोग जलते थे पर सामने से सभी उनका गुणगान किया करते थे। गोनू झा की छठी ज्ञानेंद्रिय को यह शक था कि लोगों के प्यार में झूठ मिला हुआ रहता है। वे मेरा बनावटी गुणगान किया करते हैं। वह बहुत दिनों से अपने गाँव के लोगों के इस अनमोल प्यार की परीक्षा लेने की योजना बना रहे थे। अगर सिर्फ़ गाँव वालों की बात होती तो उतनी ज़्यादा परेशानी और चिंता की बात नहीं थी। मगर उन्हें तो अपने घर के लोगों की बातों में भी मिलावट की महक आती थी। इसलिए उन्होंने सोचा कि क्यों इन सबके प्यार की परीक्षा ली जाए। एक ही तीर से कई शिकार करना इसी को कहते हैं।

अब उस योजना पर अमल करने की बारी थी। बहुत सोच-विचार के बाद गोनू झा एक दिन सुबह उठे नहीं। सूरज चढ़ गया छप्पर पर मगर गोनू झा ने बिछौना नहीं छोड़ा। उनकी पत्नी को थोड़ा अंदेशा हुआ। गईं जगाने तो, “दैय्या रे दैय्या... बाप रे बाप...।” झा जी के मुँह से तो झाग निकला हुआ था और बेचारे बिछौना से नीचे एक कोने में लुढ़के पड़े थे। उनकी पत्नी तो कलेजा पीट-पीटकर चिल्लाने लगी। बेटा भी माँ की आवाज़ सुनकर अपने बापू के पास जा पहुँचा। वहाँ का नज़ारा देखकर उसका कलेजा दहल गया। वह भी फफक-फफक कर रोने लगा। कहे जा रहा था, “कोई हमारा सब कुछ ले ले। बसे हमरे बाबूजी को लौटा दे।”

जैसे ही यह महादुखद ख़बर लोगों को पता चली, भीड़ लग गई। ख़बर सुनकर गोनू झा से उनको मरणोपरांत अपने ख़र्चे पर गंगा भेजने का वादा करने वाले मुखिया जी भी पहुँच गए। गौ दान का भरोसा दिलाने वाले सरपंच साहब भी लगे दोनों गोनू झा के बेटे को समझाने, “आ..हा..हा...! बड़े परतापी आदमी थे। पूरे ज़िला-जवार में उनका कोई ज़ोर नहीं। अब विधि का विधान यही था तो क्या किया जा सकता है।”

उधर ज़िंदगी भर उनका चिलम भरने वाला चिलमची रहा अकलू हजाम ज्ञान बाँट रहा था, “करनी देखो मरनी बेला। देखा आप लोगों ने कि जैसे उमर भर सबको बुरबक बनाते रहे वैसे ही चट-पट में अपना प्राण भी त्याग दिए। सारा भोग बाकिए रह गया।” सरपंच साहब उसकी पत्नी को दिलासा दे रहे थे, “झा जी बहुत धर्मात्मा आदमी थे। सीधे स्वर्ग गए। अब इनके पीछे रोने-पीटने का कौनो काम नहीं है। कुछ रुपया-पैसा रखे हैं तो गौ दान करा दीजिएगा। वैकुंठ मिलेगा।”

मुखिया जी ने बेटे को कहा, “जल्दी करो भाई, घर में लाश ज़्यादा देर तक नहीं रखनी चाहिए। ऊपर से मौसम भी ख़राब है। प्रभुआ और सीताराम को तुम्हरे गाछी में भेज दिया है पेड़ काटने। जल्दी से लेकर चलो।” इसके बाद दो आदमी झा जी को पकड़कर कमरे से बाहर निकालने लगे। लेकिन गोनू झा क़द-काठी में जितने बड़े थे, उनके घर का दरवाज़ा भी उतना ही छोटा था। अपन जिनगी में तो झा जी झुककर निकल जाते थे। लेकिन अभी तो लोग उन्हें बाहर निकाल ही नहीं पा रहे थे। तभी सूरज बाबू बोले, “अरे बिनेसरा! बढ़ई को बुलाओ। दरवाज़ा काट देगा।”

बिनेसरा तुरंत अपने औज़ार आरी-बंसिला लेकर हाज़िर हो गया। झा जी का बेटा बोला, “रुक हो बिनेसर भाई! बाबू जी तो अब रहे नहीं। उन्होंने बड़े शौक से यह दरवाज़ा बनवाया था। इसको काटने से उनकी आत्मा को भी तकलीफ़ होगी। अब तो बाबूजी स्वर्ग सिधार गए। शरीर तो उनका रहा नहीं। सो उनके पैर को बीच से काटकर छोटा कर दो। फिर आराम से निकल जाएँगे।”

“हूँ...” कर के बिनेसर बढ़ई जैसे ही पैर काटने के लिए घुटना पर आरी भिड़ाया कि गोनू झा फटाक से उठ बैठे... और बोले, “रुको! अभी हम मरे नहीं हैं। ये तो हम तुम सब लोगों की परीक्षा ले रहे थे कि ख़ाली मुँह पर ही चिकन-चिकन बात करते हो कि मरे के बाद भी!” अब तो मुखियाजी, सरपंच साहब, अकलू हजाम, बिनेसर बढ़ई, उनका अपना बेटा... सब का मुँह बासी जलेबी की तरह लटक गया। सबकी कलई जो खुल गई थी। गोनू झा नक़ली मरकर भी असली जी गए थे। बुरे वक़्त में ही हित और अहित की पहचान होती है।

स्रोत :
  • पुस्तक : बिहार की लोककथाएँ (पृष्ठ 11)
  • संपादक : रणविजय राव
  • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत
  • संस्करण : 2019

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