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तुझे मैं कहूँ फूलकुमारी री

tujhe main kahun phulakumari ri

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राजकुमारी हेममाला को जाने क्या सूझा कि एक दिन अपनी सखियों से बोली, “सखी री, चलो वन को चलें।” सखियों ने कहा, “ठीक है चलो।”

पहले हल्का जंगल पड़ा, फिर जंगल घना होता गया। वहाँ रास्ता सूझ नहीं रहा था, सिर्फ़ काँटे ही काँटे थे। पेड़ों के अगल-बग़ल से गुज़रते हुए राजकुमारी सखियों के साथ आगे बढ़ती रही। चहुँओर खड़े तीखे पहाड़ फैले हुए थे। एक छोटा झरना कल-कल करते बह रहा था। उसके किनारे अशोक के पेड़ फूलों से लदे हुए थे। सखियों ने फूल का गुच्छा तोड़-तोड़कर राजकुमारी को सजा दिया। राजकुमारी तो ऐसे ही सुंदर थीं, फूल-पत्तों से सजकर साक्षात फूलकुमारी की तरह दिखने लगी। कोयल बोलने लगी-कुहू...कुहू...

सखियों ने राजकुमारी को झूले पर बिठाकर गाना शुरू किया:

झूला करता कर-कर

राजकुमारी के सिर पर सोने का मुकुट

कर रहा है झकझक

जलता अंगार दहकने लगा

राजकुमारी के बालों में जाने क्या फूल था

सारा जंगल महकने लगा।

उस झूले से कुछ दूरी पर एक छोटा टेढ़ा-मेढ़ा संकरा रास्ता पहाड़ के ऊपर तक जा रहा था। उसी रास्ते पर एक घोड़ा दौड़ रहा था। घोड़े की पीठ पर पगड़ी बाँधे एक सिपाही बैठा था। उसकी आँखों में तेज दमक रहा था, होंठों पर मुस्कान थी। टबक-टबक घोड़ा दौड़ाते राजकुमारी के पास पहुँचकर उसने पूछा,

“तुझे कहता फूलकुमारी री

यह रास्ता जाता किस राज्य की ओर?”

राजकुमारी बोली,

“तुझे कहती सिपाही भाई रे

यह रास्ता जाता वणेइगढ़ को

यह रास्ता जाता लहडागढ़ को

यह रास्ता जाता केऊँझरगढ़ को।”

सिपाही ने फिर अपना वही प्रश्न दुहराया,

“तुझे कहता फूलकुमारी री...”

राजकुमारी ने उत्तर दुहराया, “तुझे कहती सिपाही भाई रे...”

सिपाही की नज़रें राजकुमारी के चेहरे पर गड़ी रहीं। राजकुमारी भी सिपाही के रूप में विभोर उसे देखती रही। सिपाही ने रास्ता किधर जा रहा है, यह प्रश्न तीन बार पूछा और राजकुमारी ने तीनों बार उत्तर दिया। उसके बाद चाबुक मारकर घोड़े को दौड़ा दिया। कुछ देर तक घोड़े के टाप की आवाज़ सुनाई देती रही, फिर धीरे-धीरे सुनाई देना बंद हो गया।

वह जाने क्या मंत्र फूँककर गया कि राजकुमारी का मन उसके पीछे-पीछे दौड़ने लगा। नदी का किनारा, फूलों का तोड़ना कुछ भी अब उसे अच्छा नहीं लगा। राजकुमारी सखियों को छोड़कर बावरी की तरह घोड़े के पीछे-पीछे दौड़ने लगी। सिपाही बढ़ई, कुंदनसाज, सुनार और बुनकर को रुपया देकर बोला, “सुनो इधर से एक लड़की आएगी। बढ़ई, तुम उसके लिए एक बक्सा बना देना। कुंदनसाज, तुम उसके लिए एक कंगन बना देना। हे बुनकर, तू उसके लिए एक साड़ी बुन देना। हे सुनार, तू उसके लिए सोना-गहना बना देना।”

राजकुमारी दौड़ते-दौड़ते पहले बढ़ई के पास पहुँची और उसने पूछा,

“तुझे कहती बढ़ई भाई रे

इस रास्ते गया क्या कोई?

काले घोड़े पर बैठा है

घुँघरू से सजे खड़ाऊ पहना है।”

बढ़ई बोला,

“तुझे मैं कहता फूलकुमारी रे

इसी रास्ते एक गया है

काले घोड़े पर बैठा है

तन से बिजली चमक रही है

घुँघरू वाला खड़ाऊ पहना है।

कमर में तलवार झूल रही है

मुझे सोने की अँगूठी दिया है

तू ले ले बक्सा चुनकर।”

राजकुमारी बक्सा लेकर आगे बढ़ी। अब कुंदनसाज से उसकी मुलाक़ात हुई। उससे पूछा,

“तुझे कहती कुंदनसाज भाई रे

इस रास्ते कौन गया है?

काले घोड़े पर चढ़ा है

घुँघरू वाला खड़ाऊ पहना है।”

कुंदनसाज बोला,

“तुझे कहता फूलकुमारी रे

इसी रास्ते से एक गया है

काले घोड़े पर बैठा है

घुँघरू वाला खड़ाऊ पहना है

रूप उसका दमक रहा है

सोने की अँगूठी दिया है

तू ले ले कंगन चुनकर।

राजकुमारी ने कुंदनसाज से कंगन लेकर पहना और आगे बढ़ी। फिर वह बुनकर से मिली। उससे पूछा,

“तुझे मैं कहती बुनकर भाई रे

इस रास्ते कोई गया है?

काले घोड़े पर बैठा है

घुँघरू वाला खड़ाऊ पहना है।”

बुनकर बोला,

“तुझे कहता फूलकुमारी रे

इसी रास्ते एक गया है

काले घोड़े पर बैठा है

धीरे-धीरे हँसते

रास्ते में फूल बिखेरते

वह यहाँ से गुज़रा है

पैसा उसने ही तो दिया है

तू ले ले साड़ी चुनकर।”

राजकुमारी साड़ी पहनकर घोड़े के टापू के निशान को देखकर उसी रास्ते आगे बढ़ी। रास्ते में सुनार से भेंट हुई, तो पूछा,

“तुझे कहती सुनार भाई रे

इस रास्ते कोई गया है?

काले घोड़े पर बैठा है।”

सुनार बोला,

“तुझे कहता फूलकुमारी रे

इसी रास्ते से एक गया है

काले घोड़े पर बैठा है

रंग उसका गोरा है

नया चाँद जैसे उगा है

हाथ में लगाम पकड़ा है

उसने तो सोने की अँगूठी दिया है

अलंकार ले ले तू चुनकर।

राजकुमारी ने गहने पहन लिए। अब रास्ता पहाड़ के ऊपर से होकर गुज़र रहा था। राजकुमारी भी पहाड़ चढ़ने लगी। पहाड़ पर संगमरमर का महल, उसके चारों तरफ़ बग़ीचा, माणिक के पेड़ पर हीरे के फूल खिले हैं, और बग़ीचे के अंदर एक तालाब, जिसका पानी काँच की तरह पारदर्शी है। झुंड के झुंड हंस उसमें तैर रहे हैं। राज-हंसिनी मंदिर के आँगन में बैठकर अपने डैने सुखा रही थी। घोड़े के टापू को पहचानकर राजकुमारी उस बग़ीचे में घुसी। बग़िया हँस उठी। कोयल बोलने लगी, तितलियाँ उड़ने लगीं, मालती लता के झूले पर बैठकर सिपाही के वेश में छिपा राजकुमार गाने लगा,

“तुझे मैं कहूँ फूलकुमारी रे

तू ही मेरे गले का हार है क्या?

तब इस झूले में।”

राजकुमारी जाकर झूले में बैठ गई। उस समय उसकी सखियाँ भी उसका पीछा करते-करते वहाँ पहुँच गईं थीं और दोनों को झूला झुलाते हुए गाने लगीं,

“रंगीन धान कौन कूट ले गया री

रास्ते में पड़ा है भूसा

मंगलध्वनि किया सखियाँ सारे

राजकुमारी बैठे झूले में हमारे

राजकुमारी हमारी बैठी वेदी पर

झूला हँस उठे वेदी की तरह।

स्रोत :
  • पुस्तक : ओड़िशा की लोककथाएँ (पृष्ठ 191)
  • संपादक : महेंद्र कुमार मिश्र
  • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत
  • संस्करण : 2017

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