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लाख की बनी भैंस

laakh ki bani bhains

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एक ब्राह्मण ने ग़रीबी से तंग आकर काशी जाने का निश्चय किया। वहाँ उसे इतनी दान-दक्षिणा मिलेंगी जिसकी वह अपने गाँव में कल्पना भी नहीं कर सकता। सो एक दिन जब उसकी पत्नी उसके बहुत पीछे पड़ गई, पैसे वाली पड़ोसिनों से अपनी तुलना करके रेशमी साड़ियाँ और गहने माँगे और लीर-लीर कपड़े पहने बेटी को दिखाकर ताना मारा तो उसका निश्चय और पक्का हो गया और वह काशी के लिए चल पड़ा।

वह दो बरस काशी में रहा और हर तरह का दान स्वीकार किया। यहाँ तक कि तेल और भैंस जैसा अशुभ दान भी उसने अस्वीकार नहीं किया। तामसिक दान लेने वाले ब्राह्मण को अधिक दक्षिणा जो मिलती है। उसकी रुचि अधिक से अधिक धन बटोरने की थी। वह कैसे मिलता है, इसकी उसे चिंता नहीं थी। दो बरस में उसने हज़ारों रूपए जमा कर लिए। धन देखकर उसकी पत्नी बहुत ख़ुश होगी, यह सोचकर वह तुरंत गाँव के लिए रवाना हो गया। काशी से लौटते समय वह पूना में रुका। उसकी पत्नी गहनों पर जान देती थी। सो एक सुनार से उसने सोने के दो हार बनवाए। इसमें उसकी जमा-पूँजी का अधिकांश खर्च हो गया।

सुनार लगता तो भला था, पर था धूर्त। ग्राहकों से वह बहुत शिष्टता से पेश आता था और उन्हें चक्कर नहीं लगवाता था। ब्राह्मण के हार उसने नियत समय से एक दिन पहले ही बना दिए। हार वैसे ही थे जैसे ब्राह्मण चाहता था। बराबर सौ लड़ियों के। सही तौल। नगीनों की चमक ऐसी कि पूछो मत! हार बहुत सुंदर बने थे।

ब्राह्मण की बाछें खिल गईं। बोला, “तुम बहुत भले और समय के पक्के हो। मैं जितने सुनारों को जानता हूँ, उनमें कोई भी तुम्हारी बराबरी नहीं कर सकता।” ब्राह्मण ने उसे दाम के अलावा कुछ पुरस्कार देते हुए कहा, “मेरे पास और रुपए होते तो मैं तुम्हें और अधिक पुरस्कार देता।” प्रशंसा के लिए सुनार ने उसका आभार माना और पुरस्कार लौटा दिया। इससे ब्राह्मण और अधिक ख़ुश हुआ।

ब्राह्मण घर पहुँचा। इतने दिनों बाद उसे देखकर उसकी पत्नी और बेटी बहुत प्रसन्न हुईं। चमचमाते हार देखकर तो उनकी प्रसन्नता सातवें आसमान को छूने लगी। बेटी ने तुरंत अपना हार पहना और साथिनों को दिखाने के लिए बाहर भाग गई। पत्नी ने भी हार पहनने में देरी नहीं की, पर पड़ोसिनों को दिखाने जाने की बजाए वह रसोई में जाकर पति के लिए खाना बनाने में जुट गई। चूल्हे के पास बैठकर उसने गले से हार खोला और उसे हाथ में लेकर तौलने लगी। हार को सहलाते और उसके वज़न का अंदाज़ लगाते हुए उसे लगा कि कहीं कुछ गड़बड़ है। उसने सोचा कि क्यों सोने की परख की जाए। इसमें हरज ही क्या है? सो उसने हार का एक मनका तोड़ा और उसे आग में रखा। आग में रखते ही सी-सी की आवाज़ के साथ मनके से धुआँ उठा और वह लाख की तरह जलने लगा। वह सन्न रह गई। यह साफ़ था कि उसके भोले-भाले पति को घाघ सुनार ने ठग लिया। उसे संभलने में कुछ समय लगा। फिर वह पति के पास गई और उसे भरसक धीरज के साथ बताया कि उसके साथ धोखा हुआ है। सुनकर ब्राह्मण के होश उड़ गए। यह सोचकर उसे गहरा सदमा लगा कि अपनी गाढ़ी मेहनत की कमाई उसने लाख के कुछ मनकों के लिए गँवा दी। उस दिन से उसके दिल में यह बात घर कर गई कि सुनारों पर कभी भरोसा नहीं किया जा सकता।

दो-तीन दिन बाद उसने पत्नी से पूछा कि उसके काशीप्रवास के दौरान घर का ख़र्च कैसे चलता था। पंडिताइन ने कहा, “मैंने एक अच्छी दुधारू भैंस ले ली। मंदिर के पास जो सुनार रहता है न, पुन्नासरी, उससे।”

ब्राह्मण चिल्लाया, “क्या? तुमने उस बदमाश सुनार से भैंस ख़रीदी?”

“हाँ, उसी सुनार से। ख़ूब दूध देती है। उसका घी बेचने से हमारा काम चल जाता है। सुबह-शाम दो-दो बालटी दूध देती है वह!”

“तुम भी! तुमने उसे ध्यान से नहीं देखा। वह असली भैंस नहीं है। यह भैंस लाख की बनी है।”

“अरे नहीं, यह कैसे हो सकता है! लाख की भैंस के कहीं दूध होता है भला!”

“इसी से मैं कहता हूँ कि औरतों की अक़्ल एड़ी में होती है। दूध देती है तो क्या! है तो वह लाख की ही। मुझसे जबान मत लड़ाओ। सुनारों को तुम नहीं जानतीं।”

“क़सम से, यह घास खाती है और जुगाली करती है, यह लाख की कैसे हो सकती है!”

“अरे भली मानुस, तुममें इतनी अक़्ल नहीं कि तुम सुनारों की चालाकी पकड़ सको। मेरा कहा मानो, वह लाख की ही बनी हुई है।”

“कैसी बात करते हो! दो पाड़े तो उसने हमारे यहीं जने हैं। चाहो तो बाड़े में चलकर देख लो। वह लाख की कैसे हो सकती है!”

ब्राह्मण भड़क गया, “तुम्हारे दिमाग़ में भूसा भरा है। सुनारों की चालें तुम नहीं जानतीं। तुम बहुत भोली हो इसलिए तुम्हें लगता है कि यह भैंस दूसरी भैंसों जैसी है। पर वास्तव में वह है नहीं। तुम कुछ भी कहो, मैं नहीं मान सकता कि यह लाख की बनी हुई नहीं है। अब चुप करो और जाकर अपना काम देखो!”

बेचारी पत्नी पति की दशा पर तरस खाकर रह गई। वह कुछ भी क्यों करे, पर उसका पति जीवन भर यह नहीं मानेगा कि यह भैंस लाख की बनी हुई नहीं है। उसके मन में जो बात बैठ गई सो बैठ गई। घोर निराश होते हुए भी ब्राह्मणी ने अंतिम प्रयास कर देखना चाहा। सो वह बाड़े में से भैंस को आँगन में लाई, उसके कान के हलका-सा चीरा लगाया और पति को रिसता हुआ ख़ून दिखाया ताकि उसे कोई शक रहे कि वह सजीव प्राणी है। लाल ख़ून देखकर ब्राह्मण पत्नी पर बरस पड़ा, “बेवक़ूफ़ औरत, तुम अब भी यह मानती हो कि जो भैंस तुम पुन्नासरी सुनार के यहाँ से लाई वह असली है, लाख की नहीं है? तुम सोचती हो कि तुम मुझे ख़ून दिखा रही हो? क्या लाख का रंग लाल नहीं होता? अब तो मानोगी की यह भैंस लाख की बनी है? या तुम भी मुझे धोखा देना चाहती हो?”

गाँव के बड़े-बुज़ुर्ग ब्राह्मण को यह समझाने आए कि उसकी भैंस सचमुच सजीव प्राणी है। पर उसकी धारणा टस से मस नहीं हुई। पुन्नासरी सुनार से ख़रीदी भैंस लाख के अलावा कुछ हो भी कैसे सकती है?”

लोग यह कहानी संस्कृत के एक श्लोक को समझाने के लिए कहते हैं। वह श्लोक कुछ यों है—

मूर्ख स्त्री! यह दूध देती है तो क्या,

यह घास चरती है तो क्या,

यह पाड़े जनती है तो क्या?

तुम सुनार की चालें क्या जानो!

तुम कुछ भी कहो, यह भैंस लाख की बनी है।

स्रोत :
  • पुस्तक : भारत की लोक कथाएँ (पृष्ठ 326)
  • संपादक : ए. के. रामानुजन
  • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत
  • संस्करण : 2001

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