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चार उपदेश

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अज्ञात

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    एक ग़रीब ब्राह्मण था। वह बहुत नकारा था, किसी काम के लायक़ नहीं था। एक या दो बीघा ज़मीन थी, उसे भी बेचकर खा-पी गया। अब कैसे काम चले? चारों तरफ़ उसे अँधेरा नज़र आने लगा। पत्नी बोली, “सुनो, कितने लोग रुपया-पैसा कमाकर ला रहे हैं, तुमने तो कोई भी काम-काज किया नहीं; जो भी कुछ गहना मायके से लाई थी, उसे भी दूसरों के पास बंधक रख दिया। अब हमारा काम कैसे चलेगा?” ब्राह्मण ने देखा दुपहर का समय हो गया है, पर अब तक पत्नी ने चूल्हा लीपा नहीं है। अपने को मन-ही-मन धिक्कारते हुए वह घर से निकला कि अब ईश्वर का ही भरोसा है।

    काफ़ी दूर चलते-चलते वह थक गया, अब और चलने की उसमें शक्ति नहीं थी। भूख और थकान के चलते चेहरा मुरझा गया था। उसी समय एक साधू से उसकी भेंट हो गई। साधू ने पूछा, “कहाँ जा रहे हो?” ब्राह्मण बोला, “नहीं जानता श्रीमान। यह पाँव और क़िस्मत जिस तरफ़ ले जाएँगे, उधर चला जाऊँगा। अब घर बैठे रहने पर गुज़ारा नहीं हो पा रहा है।” साधू दूसरे के मन को पढ़ लेते थे। ब्राह्मण के सारे दुःखों को उन्होंने अपना बना लिया। ब्राह्मण कुछ दिन मठ में रहा। साधू तो भीख माँगकर गुज़ारा करते। वे भला कितने दिन ब्राह्मण को खिला पाते? एक दिन उससे बोले, “हे ब्राह्मण! बैठ कर खाने पर तो नदी का बालू भी ख़त्म हो जाएगा। तू जा और अपना रास्ता ख़ुद निकाल। तेरे पास बुद्धि है, शरीर में ताक़त है। दो पेट क्या तू पाल नहीं पाएगा? मैं तुझे चार उपदेश दे रहा हूँ, उसका अगर ढंग से उपयोग करेगा तो तू भूखा नहीं रहेगा-

    भंगी की तरह रोज़गार करना

    रईस की तरह खाना

    पत्नी के सामने झूठ बोलना

    राजा के आगे सच बोलना।”

    ब्राह्मण ख़ाली हाथ घर लौटा। पेट में आग लगी हुई थी। पत्नी ने देखा कि ब्राह्मण के हाथ में एक मुट्ठी चावल भी नहीं है। आठ दिन घूम-फिरकर उसका पति मुरझाया चेहरा लिए लौट आया है। आठ दिन से वह भूखे पेट पड़ी है। ब्राह्मण को यों ख़ाली हाथ लौटा देखकर भूखी शेरनी की तरह वह गरज उठी। ब्राह्मण ने छटपटाते हुए किसी तरह रात बिताई। दूसरे दिन सुबह कौआ बोलने से पहले उठकर ब्राह्मण घर से निकल पड़ा। कुछ मिलेगा तभी घर लौटेगा नहीं तो नहीं।

    चलते-चलते रास्ते में लोगों का एक झुंड मिला। वे सब काफ़ी परेशान लग रहे थे। उस गाँव में एक साधू थे, जिनकी मौत हो गई थी। वह किस जाति के हैं, ये किसी को पता नहीं था। अब उनके शव को उठाए कौन? बड़ी मुश्किल में पड़े थे लोग। ब्राह्मण बोला, “किसी भी काम के लिए मेरे मन में नफ़रत नहीं है। इस पापी पेट के लिए मैं कोई भी काम करने के लिए तैयार हूँ। शव को ले जाकर श्मशान में जला दूँगा। इसके बदले मुझे क्या दोगे, कहो?” गाँव वालों ने आपस में चंदा इकट्ठा करके पाँच रुपए जमा किए। ब्राह्मण बोला, “ठीक है। जो मेरी क़िस्मत में लिखा था।'' उसके बाद वह अकेला शव को कंधे पर लादकर श्मशान ले गया।

    ब्राह्मण को तो पहला उपदेश ही मिला था कि भंगी की तरह रोज़गार करना। पैसा कमाने में जाति धर्म का विचार क्यों करे? शव लेकर श्मशान पहुँचा। लकड़ी सजाकर, आग जलाकर, मुखाग्नि दी।

    उस साधू के बारह हाथ लंबी जटा थी। जटा ने तुरंत आग पकड़ ली। जटा के जलते ही सोने की मुहरें खस-खस गिरने लगीं। चोर के भय से साधू ने सोने की मुहरों को जटा में छिपाकर रखा था। ब्राह्मण की बाँछें खिल गईं। ओहो ईश्वर, जब देते हैं तो ऐसे देते हैं। यह उसके काम का पुरस्कार है।

    मुहरों को अँगोछी में बाँधकर ब्राह्मण ने घर का रुख़ किया। घर पहुँचकर पत्नी से कुछ नहीं कहा। एक मुहर को तुड़वाकर उस पैसे से चावल, दाल, घी, मछली सब ख़रीद लिया। पत्नी बहुत ख़ुश हुई कि पति बड़ा योग्य निकला। पति को खिला-पिला कर ख़ूब अच्छे से रखने लगी। अब आदर-सत्कार की कोई सीमा नहीं थी। दिन पर दिन स्थिति में सुधार होने लगा। मकान बना। ज़मीन-जायदाद ख़रीदा गया। पर पेट काटकर ब्राह्मण ने धन का संचय नहीं किया। साधू ने कहा भी था रईसों की तरह खाना। पैसा हो तो फिर कौन सी चीज़ भला नहीं मिलती। वह अच्छे-अच्छे पकवान मँगवाकर मन भर कर खाता। इस तरह उसके दिन मज़े में कटने लगे। पर लोग आपस में कानाफूसी करने लगे। ये क्या बात हुई। कभी जिस घर में तीन बेला में एक बेला ही चूल्हा जलता था, बासी माँड़ नहीं मिलता था, उसके ठाठ तो देखो? किसी ने कहा कि ज़रूर रुपयों का कलश मिला है। किसी ने कहा कि यक्ष जाते-जाते उसके चूल्हे में गिरकर सोने का ढेर बन गया। इस तरह कई बातें होने लगीं।

    ब्राह्मण सब सुनकर भी अनजान बना रहता। कोई पूछता तो बात को घुमा देता। किसी को भी असली बात का पता नहीं चल सका। उस गाँव में ब्राह्मणी की एक सखी रहती थी। दोनों सहेली एक दिन भी मिले बिना नहीं रह पातीं। एक दिन सहेली ने आकर ब्राह्मणी से पूछा, “अरी सखी! तुमसे एक बात पूछूँ तो बताओगी?” ब्राह्मणी बोली, “कौन सी बात भला मैंने तुमसे छिपाई है?” सखी बोली, पहले तो बहुत मुश्किल से तुम लोगों का गुज़ारा होता था, अब काफ़ी अच्छे से गुज़र-बसर हो रही है। बताओ कहाँ से इतना रुपया-पैसा पाया?” ब्राह्मणी ने इस बारे में ब्राह्मण से कुछ पूछा नहीं था। इसलिए बोली, “ठीक है सखी! यह बात उनसे पूछकर तुम्हें कल बताऊँगी।”

    ब्राह्मण के घर लौटने पर ब्राह्मणी मुँह फुलाकर बैठी थी। ब्राह्मण ने मनुहार करते हुए कारण जानना चाहा तो ब्राह्मणी बोली, “तुम बहुत कपटी हो! इतना रुपया-पैसा कहाँ से आया, उसके बारे में मुझे कभी कुछ नहीं बताया। क्या मैं तुम्हारी पत्नी होने के लायक़ नहीं?”

    ब्राह्मण बोला, “इतनी छोटी सी बात? मुझसे अगर पूछी होती तो मैं कब का बता देता। मुझे एक साधू ने एक औषधि के बारे में बताया है। कोचिला फल और गुड़ से बने उस औषधि को खाने पर पेट से सोने की मुहर निकलेगी, समझी? पर यह बात बाहर निकले। चाहे कोई भी पूछे किसी को कुछ बताना मत। घर की बात बाहर जाना ख़राब होता है।”

    ब्राह्मणी ने हामी भरी। कैसे रात बीते, कब वह सखी को यह बात बताए। मन बेसब्र होने लगा, ज़बान लप-लप करने लगी। सुबह घाट पर अपनी सखी को सब बता दिया और उसे सावधान करते हुए बोली, “देख सखी! ईश्वर का प्रसाद देकर सखी बनाई हूँ तुम्हें, तुम्हारे साथ कपट करने पर नर्क में जाऊँगी। तुम किसी के सामने यह बात कहना। बात फैल जाएगी तो मुझे ब्राह्मण अपने घर में नहीं रखेंगे। यह बात जैसे भी हो, चार कान से छह कान तक जाए।”

    सखी के पाँव ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे। वह दौड़कर अपने पति के पास पहुँची और बोली, “सुनते हो! एक औषधि खाकर सखी के पति एक कलश सोने की मुहर पाए हैं। उनकी तरह रईस आदमी हमारे गाँव में और कौन है? हम भी क्यों ग़रीब रहें? सखी से वही दवा लाई हूँ। खा लो। सखी मुझसे बहुत प्यार करती है। नहीं तो क्या पति से छुपाकर यह दवाई मुझे दी होती? पर किसी से यह बात कहना। उसका पति जान जाएगा तो उसे काट डालेगा। कल से हमारा भाग्य बदल जाएगा।” इतना कहकर पहले से कोचिला फल और गुड़ को पीस कर बनाई हुई दवा अपने पति को दे दी।

    आधी रात को पति का पेट फूलने लगा। दर्द से वह तड़पने लगा। पत्नी इंतज़ार करती रही। अब पेट से सोने की मुहर गिरेगी। उसकी आँखों में नींद नहीं थी। उधर हाथ-पैर फेंकते हुए दर्द से तड़पते पति की आँखें पलट गईं। हाथ-पैर ठंडे पड़ने लगे। उँगलियाँ और मुड़ी नहीं। चीख़-पुकार सुनकर आस-पड़ोस के लोग इकट्ठा हो गए। क्या बात हुई? आदमी खा-पीकर सोने गया। कोई बीमारी नहीं और ऐसे मर गया? इस स्त्री ने ज़रूर ज़हर दे दिया है। गाँव के मुखिया ने राजा के पास जाकर गुहार लगाई। राजा उस स्त्री को बँधवाकर ले आए और उससे पूछा, “अरी! अपने पति को ज़हर देकर मार दिया, क्या लाभ मिला इससे?”

    स्त्री बोली, “महाराज! मैं बहुत ही हतभागिनी हूँ। जो भी सज़ा देना चाहते हैं, दीजिए। यह निर्लज्ज प्राण और रहकर क्या लाभ। पहले मेरी सखी बहुत ही तकलीफ़ में दिन बिता रही थी। अब वह काफ़ी सुख से है। एक दिन सखी से पूछा कि उन्हें इतना धन कहाँ से मिला? उसने अपने पति से पूछकर मुझे एक औषधि के बारे में बताया। बोली, कोचिला फल और गुड़ खाने से पेट में से सोने की मुहर निकलेगी। मैंने वही औषधि अपने पति को दी। मेरा सीना फट नहीं जाता, आँखें फूट नहीं जाती, मैं मर क्यों नहीं जाती। मैं ज़िंदा क्यों हूँ।”

    राजा ने सारी बात सुनकर ब्राह्मण को बुलाकर पूछा, “तुमने अपनी पत्नी से झूठ क्यों बोला?” ब्राह्मण बोला, “महाराज! एक साधू ने मुझे चार उपदेश देकर कहा था कि-

    भंगी की तरह रोज़गार करना

    रईस की तरह खाना

    पत्नी के सामने झूठ बोलना

    राजा के आगे सच कहना”

    राजा के सामने झूठ बोलने पर सिर बचेगा नहीं। इसलिए जो कुछ घटा था, सबकुछ एक-एक करके राजा के सामने ब्राह्मण ने बता दिया। सच बात सुनकर राजा ने ब्राह्मण को छोड़ दिया। ब्राह्मण आनंद के साथ अपने घर-परिवार में सुख से रहने लगा।

    स्रोत :
    • पुस्तक : ओड़िशा की लोककथाएँ (पृष्ठ 68)
    • संपादक : महेंद्र कुमार मिश्र
    • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत
    • संस्करण : 2017

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