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गोंद का पहाड़

gond ka pahaD

अन्य

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एक गाँव में एक आदमी रहता था। वह लकड़ियाँ काटकर पास के नगर में ले जाकर बेच देता और जो कुछ पैसा पाता उसी से उसका और उसके बेटे का गुज़ारा होता। उसका बेटा किन्नूर इतना छोटा था कि वह ठीक से चल भी नहीं पाता था लेकिन बोलना उसे गया था।

एक दिन किन्नूर के मन में इच्छा उत्पन्न हुई कि उसे भी अपने पिता की भाँति पहाड़ पर चढ़ना चाहिए। वह पिता के साथ जाने का हठ करने लगा। पिता ने उसे मना किया और समझाया।

‘तुम अभी छोटे हो। तुम पहाड़ पर नहीं चढ़ सकोगे।’

‘मैं तो चढ़ूँगा और चढ़कर रहूँगा।’ बालहठ तो बालहठ। किन्नूर भला कैसे मानता? उसने तो जान लिया था कि वह पहाड़ पर चढ़कर रहेगा।

पिता बहुत परेशान हुआ। उसने उस दिन तो किसी प्रकार किन्नूर को समझा-बुझा दिया लेकिन दूसरे दिन फिर वह हठ करने लगा। इस तरह एक सप्ताह व्यतीत हो गए। जैसे-जैसे दिन गुज़रते जा रहे थे वैसे-वैसे किन्नुर का हठ बढ़ता जा रहा था। उसने खाना-पीना त्याग दिया और भूमि पर लोट लगाने लगा।

‘अच्छा, ठीक है! कल तुम्हें पहाड़ पर ले चलूँगा। कल तुम पहाड़ चढ़ना।’ पिता ने कहा। यह सुनकर किन्नूर ने खाना खाया और सो गया। दूसरे दिन जब किन्नूर सोकर उठा तो उसने देखा कि उसके घर के बाहरी आँगन में एक छोटा-सा पहाड़ खड़ा है।

‘देखो, पहाड़ स्वयं तुम्हारे लिए यहाँ गया है। अब तुम इस पर चढ़ जाओ।’ पिता ने कहा।

‘लेकिन यह तो छोटा है।’ किन्नूर बोला।

‘बड़ों के लिए बड़ा पहाड़ होता है। और छोटों के लिए छोटा। अब तुम इस पर चढ़ जाओ।’ पिता ने समझाया।

‘लेकिन इस पर तो कोई पेड़ नहीं है। मैं इस पर नहीं चढ़ूँगा।’ किन्नूर ने कहा।

‘पहाड़ अभी छोटा है न, कल तक इस पर पेड़ उग आएँगे। अब तुम इस पर चढ़ जाओ। पिता ने कहा।

‘तो फिर मैं कल ही इस पर चढ़ूँगा।’ यह कहकर किन्नूर खेलने चला गया।

पिता ने देखा कि उसका उपाय कारगर सिद्ध हो रहा है। वस्तुतः पिता ने रातों-रात मिट्टी का ढेर लगाकर एक छोटा-सा पहाड़ बना दिया था किंतु उस पर कोई पेड़-पौधे नहीं थे। अब पिता ने उस पहाड़नुमा ढेर पर पेड़ की शाखाएँ लगा दीं जिससे वह असली पहाड़ जैसा दिखने लगा।

दूसरे दिन किन्नूर सोकर उठा तो उसने देखा कि उसके पहाड़ पर पेड़ उग आए हैं। वह ख़ुश हो गया। उसने पेड़ों को पकड़कर पहाड़ पर चढ़ने का प्रयास किया लेकिन पेड़ की शाखाएँ गिर गईं और किन्नूर भी फिसलकर गिर पड़ा। वह रोने लगा। यह देखकर उसके पिता को बहुत दुख हुआ।

‘अभी पेड़ नए हैं इसलिए टूट गए। कल तक ये मज़बूत हो जाएँगे।’ पिता ने समझाया।

इसके बाद पिता ने रातों-रात वृक्षों से गोंद लाकर मिट्टी पर छाप दिया और उसी में पेड़ की शाखाएँ खोंस दीं। सुबह तक गोंद सूखकर कड़ी हो गई और पेड़ की शाखाएँ भी उसमें जम गईं।

किन्नूर सोकर उठा और पहाड़ पर चढ़ने लगा। इस बार शाखाएँ मज़बूती से गड़ी हुई थीं अतः वह बिना गिरे पहाड़ के शिखर तक जा पहुँचा। इस प्रकार गोंद के पहाड़ पर चढ़कर किन्नूर का पहाड़ पर चढ़ने का सपना पूरा हो गया और उसका बालहठ भी पूरा हो गया।

स्रोत :
  • पुस्तक : भारत के आदिवासी क्षेत्रों की लोककथाएं (पृष्ठ 243)
  • संपादक : शरद सिंह
  • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत
  • संस्करण : 2009

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