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मिट्टी की सास

mitti ki saas

बहुत समय पहले की बात है, एक आज्ञाकारी बहू थी। सास की छोटी से छोटी इच्छा पूरी करने को वह हमेशा तत्पर रहती थी। सास की गरिमा का ध्यान रखते हुए, बुढ़िया बहुत कम बोलती थी। ज़्यादातर तो वह इशारों से ही काम चला लेती थी। हर सुबह बहू सास के पास जाती और पूछती कि आज कितना चावल पकेगा। बुढ़िया कुछ देर समस्या पर गहराई से विचार करती और फिर धीरे से एक हाथ, ऊपर उठाती। हाथ ऊपर उठाकर कभी वह दो अंगुलियाँ दिखाती कभी तीन-जैसी उस की मर्ज़ी होती। बहू उसके आदेश को सर झुकाकर स्वीकार करती और झुर्रीदार हाथ के निर्देश के अनुसार दो या तीन कटोरी चावल पकाने के लिए रसोई में चली जाती।

एक दिन सास बीमार पड़ी और मर गई। जवान बहू रो-रोकर हलकान हो गई। सास का साया उठ जाने से उसे कुछ समझ नहीं पड़ रहा था कि अपनी छोटी-सी गृहस्थी वह कैसे चलाए। अब वह किससे पूछे कि आज कितना चावल बनेगा? वह रात-दिन आशंका से घिरी रहती और कोई निर्णय नहीं कर पाती थी। पति उसकी सास भक्ति देखकर फूला नहीं समाता था। पर रोज़ाना उसके इस सवाल का जवाब देते-देते कि आज कितना चावल बनेगा पति कुछ ही दिनों में आजिज़ गया।

रोज़-रोज़ के इस झंझट से छुटकारा पाने के लिए पति ने एक तरक़ीब सोची। वह कुम्हार के पास गया और उससे अपनी माँ की आदमकद मूर्ति बनाने को कहा। उसने कुम्हार को ख़ासतौर पर यह हिदायत दी कि मूर्ति के एक हाथ की दो अंगुलियाँ ऊपर उठी हों और दूसरे की तीन। कुछ ही दिनों में मूर्ति को रंग दिया गया और कपड़े पहना दिए गए। पति मूर्ति को घर लाया और उसे ऐसे स्थान पर रखा जहाँ से वह पत्नी को रसोई में से दिखती रहे। सास को वापस पाकर बहू की ख़ुशी का पार रहा। उसकी सारी परेशानियाँ दूर हो गईं। जब भी उसे चावल की मात्रा के बारे में शंका होती वह रसोई से बाहर देखती और आदेश ले लेती। दो अंगुलियों वाला हाथ पहले दिखता तो वह दो कटोरी चावल पकाती और तीन अंगुलियों वाले हाथ की झलक दिखती तो तीन कटोरी। उस दिन भात हांडी में समाता नहीं था। बहू मिट्टी की सास पाकर ख़ुश थी और पति पत्नी को ख़ुश देखकर ख़ुश था।

पर यह ख़ुशी अधिक दिन नहीं चली। एक रोज़ पति को पता चला कि चावल की बोरी कुछ ही हफ़्तों में ख़त्म हो जाती है जबकि खाने वाले पति-पत्नी दो ही हैं। उसने पत्नी से पूछा तो उसने बताया कि वह रोज़ाना सास से पूछती है और उसके आदेश का पालन करती है। पति के आग लग गई, “दो जन के लिए दो-तीन कटोरी चावल? तुम्हारी अक़्ल घास चरने गई है? हम इतना भात नहीं खा सकते। बोलो, खा सकते हैं? जब माँ ज़िंदा थी तब भी तुम दो कटोरी चावल पकाती थी और वह भी हमसे खाया नहीं जाता था।” पत्नी ने हौले से जवाब दिया, “हम दो नहीं, तीन हैं। तुम अपनी माँ को भूल रहे हो। मैं अब भी उन्हें खिलाकर ही खाती हूँ। अकसर तो मेरे लिए थोड़ा ही बचता है। तुम बुरा मत मानना, तुम्हारी माँ की ख़ुराक पहले से बढ़ गई है।”

पति को अपने कानों पर भरोसा नहीं हुआ। कैसी बेवक़ूफ़ी की बात है कि मिट्टी की मूर्ति कई बोरी चावल चट कर गई! आपे से बाहर होकर उसने पत्नी की धुनाई कर डाली। उसने उसे और उसकी मिट्टी की सास दोनों को घर से निकाल दिया।

दरअसल हुआ यह कि वह रिवाज़ के मुताबिक़ दोनों वक़्त सास के आगे पत्तल रखती और एक-एक वह सब परोसतीं जो घर में बना होता। खाना परोसकर जैसे ही वह रसोई में जाती उसकी पड़ोसन दीवार में बहुत होशियारी से बनाए सूराख से दबे पाँव आती और पत्तल का खाना लेकर उसी रास्ते से वापस चली जाती। इस तरह वह ख़ुद खाना बनाने से बच जाती। जबकि बेचारी बहू यह सोचती कि उसकी सास पहले की तरह अब भी खाना खाती है। उसकी नादानी ने उसे घर से बेघर कर दिया।

उसके दुख का पार था। अपनी प्यारी सास का पुतला बाँहों में उठाए हुए वह रोती-कलपती, प्रार्थना करती और अपने भाग्य को कोसती डर के मारे संज्ञाशून्य-सी रात के अँधेरे में नाक की सीध में चलती रही। चलते-चलते वह गाँव के बाहर जंगल में पहुँच गई। भयंकर अँधेरे में वह थर-थर काँपने लगी। सास को उसने कसकर छाती से चिपका लिया। हलकी-सी आहट से ही उसके रोएँ खड़े हो जाते। बेचारी आज से पहले घर से बाहर ही बहुत कम निकली थी। जैसे-तैसे वह एक पेड़ पर चढ़ी और डाली के साथ ख़ुद को साड़ी से बाँध लिया। सास को उसने एक पल भी अपने से अलग नहीं किया। भय के कारण वह पसीने से नहा गई। थोड़ी देर बाद उसने किसी के चलने की आवाज़ सुनी। बड़ी-बड़ी मूँछों वाले कुछ लोग हाथों में जलती हुई मशालें लिए झाड़ियों के बीच से उसी की ओर रहे थे। उनके खू़ूँखार चेहरों और पहनावे से उसने अंदाज़ लगाया कि वे चोर हैं। वे सीधे उस पेड़ के नीचे आए जहाँ वह छुपी हुई थी। थकान से चूर चोरों ने पीठ का बोझ नीचे रखा और चोरी के माल का बँटवारा करने लगे। मशालों की रोशनी में वे उसे साक्षात राक्षस लग रहे थे। बेचारी अबला नार पीपल के पत्ते की तरह काँपने लगी। सास पर उसकी पकड़ ढीली हो गई। मिट्टी की मूर्ति ज़ोरदार आवाज़ के साथ चोरों के ऊपर जा गिरी।

डर से चोरों की रुह फ़ना हो गई। जिसका जिधर सींग समाया सर पर पाँव रखकर भागा। किसी ने पीछे मुड़कर भी नहीं देखा कि हुआ क्या। बहू भय से अचेत हो गई। सुबह होश आने पर उसने देखा कि मिट्टी की सास के तीन टुकड़े हो गए हैं और उसके आस-पास सोने, हीरे, मोती, लाल, माणिक आदि के ढेर लगे हैं। पास ही कुछ बुझी हुईं मशालें पड़ी थीं। यह भरोसा होने पर कि आस-पास कोई नहीं है वह संभलकर नीचे उतरी और सास की मूर्ति के टुकड़ों को एक जगह इकट्ठा किया। उसकी जान बचाने और अनमोल ख़ज़ाने के लिए उसने सास का बहुत बहुत एहसान माना।

एक हाथ में टूटी हुई मूर्ति और दूसरे में भारी गठरी उठाए हुए वह घर गई और कुंडी खटखटाई। उसे देखकर पति का ग़ुस्सा फिर भड़क उठा। वापस आने के लिए उसने उसे बहुत सख्त-सुस्त सुनाया। फिर गठरी के अनमोल ख़ज़ाने के बारे में जानकर उसने उसे तुरंत खींचकर भीतर लिया और पूरा क़िस्सा सुना। गठरी के सोने और जवाहर को देखकर उसकी आँखें ललाट में चढ़ गईं। ख़ज़ाने को संदूक़ में रखकर वह पत्नी की बताई जगह पर जंगल में गया और बचे हुए माल को बाँधकर घर ले आया। किसी को कानोंकान ख़बर नहीं हुई। अब उसके पास इतना धन था जितना छोटे-मोटे राजा के पास भी क्या होगा!

दरवाज़ा भीतर से बंद करके उसने फ़र्श पर सारा ख़ज़ाना फैलाया और हर चीज़ की अलग-अलग ढेरियाँ बनाईं। वह जानना चाहता था कि किस चीज़ की कितनी मात्रा है। उसने पत्नी को पड़ोस से मापने का बड़ा बर्तन लाने को कहा। उसे सख़्त हिदायत दी कि क्या मापना है इसके बारे में किसी से कुछ कहे।

पड़ोसन अपनी उत्कंठा दबा सकी कि ये कंगले इतने बड़े मापने के बर्तन का क्या करेंगे। पर बहू ने होंठ सी लिए। सो पड़ोसन ने मापने का बर्तन उसे देने से पहले उसके पेंदे में इमली का टुकड़ा चिपका दिया। मापने का बर्तन वापस लौटाया गया तो पड़ोसन और उसका पति यह देखकर दंग रह गए कि बर्तन के पेंदे में इमली पर एक बेशक़ीमती रत्न चिपका हुआ है। उन्होंने बहुत माथा लड़ाया, कल्पना के घोड़े दौड़ाए और हर उस तरीक़े पर विचार किया जिससे कल के फटेहाल पड़ोसियों ने इतना धन जमाकर लिया कि जिसे मापने के लिए मापने के बर्तन की ज़रूरत पड़े, पर व्यर्थ। रहस्य रहस्य ही बना रहा। पहला अवसर मिलते ही पड़ोसन ने बहू पर प्रश्नों की बौछार कर दी। भोली बहू ने फुसफुसाते हुए (बार-बार यह कहते हुए कि किसी से कहना मत) उस रोमांचक रात की लोमहर्षक घटना बता दी कि कैसे पति ने उसे घर से बाहर निकाला, कैसे डर से उसकी जान निकली जा रही थी, कैसे उसने पेड़ पर आश्रय लिया और कैसे उसे इतना धन मिला। अंत में उसने कहा कि यह सब उसकी सास का प्रताप है।

चतुर पड़ोसन उसकी सास की एक-एक रग जानती थी। वह कैसे इस वाहियात बात पर भरोसा करती? उसके पति ने सोचा कि रातोंरात भाग्य सँवारने का यह आसान रास्ता है। उसने भी मिट्टी की एक मूर्ति बनवाई, उसे पत्नी के हवाले किया और उसे जंगल में छोड़ आया। उसने पत्नी से साफ कह दिया कि पड़ोस की बेवक़ूफ़ बहू जितना धन लाए बिना वह उसे घर में नहीं घुसने देगा। पड़ोसन को अपने पर पूरा भरोसा था। जैसी कि उम्मीद थी वे ही चोर मशालें लिए हुए उस दिन के माल को बाँटने के लिए उसी पेड़ के नीचे आए। जैसे ही उन्होंने गठरियाँ खोली पड़ोसन ने पेड़ पर से उन पर मूर्ति फेंक दी। भयंकर धमाका हुआ। चोर भाग खड़े हुए। पर इस बार वे बहुत दूर नहीं गए। उन्हें शक हुआ। पिछली बार वे क़तई अनजान थे, पर फिर वैसी ही आवाज़ हुई तो उन्होंने जानना चाहा कि धमाके की वजह क्या है। वे पेड़ों के पीछे छुपकर देखने लगे। थोड़ी देर बाद एक औरत पेड़ से उतरी और उनके चोरी के माल को समेटने लगी। ग़ुस्से से लाल-पीले होते और उसे गालियाँ देते हुए वे चारों तरफ़ से उसकी ओर दौड़े। पिछली बार उनके माल को हड़पने के लिए उन्होंने उसे बहुत बुरा-भला कहा और उस पर पिल पड़े। पड़ोसन को कुछ कहने का मौक़ा ही नहीं मिला। उसके बेहोश होने तक वे उसे मारते रहे और उसे पेड़ से बाँधकर चले गए।

अगले दिन उसका पति आया। वह भय से विक्षिप्त-सी हो गई थी। धन की लालसा में उसकी ऐसी दुर्गति हुई और कानी कौड़ी भी हाथ नहीं लगी।

स्रोत :
  • पुस्तक : भारत की लोक कथाएँ (पृष्ठ 29)
  • संपादक : ए. के. रामानुजन
  • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत
  • संस्करण : 2001

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