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चार युग

chaar yug

अन्य

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एक दिन चार युग एक जगह मिले। त्रेता ने सतयुग का हाथ पकड़कर पूछा, “भाई, तुम्हारे युग में न्याय-विचार कैसे किया जाता था?’ सतयुग बोला, “मेरे काल में प्रजा दोष करने पर राजा को दंड मिलता था। त्रेता बोला, “यह क्या बात हुई?” सत् बोला, “मेरे युग में राजा प्रजा का प्राण होता था। राजा के गुण या अवगुण से प्रजा का मंगल या अमंगल होता था।”

तब द्वापर युग आगे बढ़कर बोला, “त्रेता तुम्हारे काल में न्याय-विचार कैसे होता था?'' त्रेता बोला, “मेरे समय में गाँव वाले पाप करते तो गाँव के मुखिया को इसकी सज़ा मिलती थी।” द्वापर ने पूछा, “ऐसा न्याय क्या उचित था?” त्रेता बोला, “समझे नहीं न? गाँव के मुखिया ने क्यों शासन ठीक से नहीं किया?”

“उसे क्या पता होता था कि किस समय कौन क्या पाप करेगा? द्वापर को त्रेता की बात ठीक नहीं लगी। तब कलियुग ने पूछा, “अच्छा द्वापर तुम बताओ, तुम्हारे युग में न्याय-विचार कैसे किया जाता था?”

द्वापर बोला, “मेरे युग में परिवार में कभी कोई दोष करता था तो घर का मुखिया सज़ा पाता।” कलियुग ऐसा न्याय सुनकर हँसा।

उसके बाद द्वापर ने पूछा, “अच्छा कलि, तुम तो हँस पड़े, बताओ भला तुम्हारे युग में जो दोष करेगा वही सज़ा पाएगा। यह क्या बात हुई?” तब बाक़ी दोनों युग ने भी कहा, “बताओ, यह क्या बात हुई?”

कलियुग बोला, “आओ मेरे साथ, मैं तुम्हें दिखाता हूँ।” कलि सभी को अपने साथ लेकर जंगल की तरफ़ गया। जंगल में पहुँचकर सड़क पर सोने के दो ढेले रख दिए। उसी रास्ते से दो बटोही गुज़र रहे थे। सोना देखकर दोनों ने तुरंत उठाकर पोटली में बाँध लिया। बड़ा वाला मित्र बोला, “भाई, तू सारा सोना पोटली में बाँधकर रख, घर पहुँचकर समान हिस्सा कर लेंगे।” छोटे मित्र ने वैसा ही किया।

रास्ते में कई तरह की बातें करते बड़ा मित्र चलता रहा, पर छोटे मित्र के कानों तक उसकी एक भी बात नहीं घुस रही थी। वह सोच रहा था कि कैसे मित्र को मारकर सारा सोना ले जाएगा। घर पहुँचकर पत्नी से सब बातें बताकर भात में ज़हर मिला देने की सलाह दी। पत्नी, पति की बात मानकर तैयार हो गई। उधर बड़े बंधु के मन में भी वही विचार था। कैसे इस काँटे को दूर करे कि उसे सारा सोना मिल जाए।

दोनों तेल लगाकर दूर के एक तालाब में नहाने गए। बड़ा मित्र छोटे मित्र से बोला, “अरे देखो तो, कितना सुंदर एक पद्म फूल लहरों के साथ झूला झूल रहा है। छोटा बंधु उधर देखने लगा तभी बड़े बंधु ने उसे तालाब के बीच में धकेल दिया। छोटा मित्र पद्म फूल के उस जंगल में फँसकर और तैर नहीं पाया। ऊब-डूब होकर आख़िर में प्राण त्याग दिया।

बड़ा बंधु घर लौटकर छोटे भाई की पत्नी से बोला, “मुझे बहुत भूख लगी है। तुरंत खाने के लिए कुछ दो। मित्र अभी नहाकर पीछे-पीछे रहा है।”

छोटे बंधु ने तो पत्नी को पहले से ही तालीम दे दी थी, इसलिए पत्नी ने सोचा मित्र को मारने के लिए ही पति ने उसे पहले घर भेज दिया है। उसने ज़हर मिले भात को कपट भरे आदर-सम्मान के साथ बड़े बंधु को खाने के लिए दिया। एक-दो कौर खाने के बाद बड़ा बंधु वहीं जो लेटा तो फिर उठा नहीं।

कलियुग बोला, “देखा? मेरा युग कैसे चल रहा है!”

स्रोत :
  • पुस्तक : ओड़िशा की लोककथाएँ (पृष्ठ 201)
  • संपादक : महेंद्र कुमार मिश्र
  • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत
  • संस्करण : 2017

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