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गंगा-जमुनी तहज़ीब और हिंदुस्तानी सूफ़ीवाद

हमारी इस साझा संस्कृति का निर्माण एक दिन में नहीं हुआ है। यह धीरे-धीरे विकसित हुई है। कई सामाजिक प्रयोग हुए हैं और अपने विरोधाभासों को किनारे रखकर समानताओं पर कार्य किया गया है। शुरूआती दौर का सूफ़ी-साहित्य जब हम देखते हैं, तब एक कहानी अक्सर सूफ़ी मल्फूज़ात में मिल जाती है—

एक जोगी किसी सूफ़ी की ख़ानक़ाह में आता है। इस कहानी में उस जोगी की करामात का भी ज़िक्र होता है, जिससे यह पता चले कि वह बड़ा पहुँचा हुआ था। उसके बाद वह सूफ़ी से मिलता है और या तो उसकी सब शक्तियाँ समाप्त हो जाती हैं या वह सूफ़ी का मुरीद हो जाता है। 

तेरहवी से पंद्रहवी शताब्दी तक के सूफ़ी मल्फूज़ात में इस तरह की कहानियाँ आम हैं। पर साथ ही योग के प्रति सूफ़ी-संतों की उत्सुकता भी देखने मिलती है। जब हौज़-उल-हयात के नाम से योग की किताब ‘अमृत कुंड’ का अरबी अनुवाद भी किया जा रहा था। पंद्रहवीं शताब्दी आते-आते सूफ़ी भारतीय संस्कृति को पूरी तरह समझ चुके थे और इस समय तक एक दूसरे की संस्कृतियों का सम्मान और आदान-प्रदान भी शुरू हो गया था। 

आगे चलकर गौस ग्वालियरी योग पर अपनी किताब ‘बह्र-उल-हयात’ लिखते हैं, जो ‘अमृत कुंड’ का फ़ारसी अनुवाद है। बंगाल में शाह मुर्तज़ा आनंद द्वारा लिखित ‘योग क़लन्दर’ भी योग पर केंद्रित है।

सत्रहवीं सदी आते-आते हमें एक बड़ा परिवर्तन दिखाई पड़ता है। हिंदू संतों और मुस्लिम सूफ़ियों ने अब अपने रूपक बदल लिए हैं। हिंदू संत, मुस्लिम रूपकों का इस्तेमाल करने लगे और मुस्लिम सूफ़ी अपने काव्य में हिंदू रूपकों का इस्तेमाल करने लगे। कृष्ण-भक्ति काव्य इस समय ख़ूब लिखा गया।

सूफ़ियों और संतों ने लोगों को उदाहरण नहीं दिए। वह ख़ुद उदाहरण बन गए। हमारी इस गंगा-जमुनी तहज़ीब का गारा इन्हीं नामों से बना है। यह नाम हमारी सब से बड़ी पूँजी हैं जिन्हें हमें अपने दिलों में सहेज कर रखने की ज़रूरत है।

सूफ़ी-संतों के विषय में लिखा गया इतिहास भी धार्मिक राजनीति की भेंट चढ़ गया। यह बड़ा आसान होता है कि आप किसी की जीवनी लिखते समय एक पक्ष को बिल्कुल ही नज़रअंदाज़ कर दें और अपने किसी ख़ास एजेंडे के तहत पूरी साहित्य-सरिता की धार एक ख़ास समुदाय या विषय की तरफ़ मोड़ दें।

पाकिस्तान हिस्टोरिकल सोसाइटी का जर्नल ऐसा ही एक उदाहरण है। यह जर्नल तब निकलता था, जब बांग्लादेश पाकिस्तान का हिस्सा था। उस समय हिंद-पाक के नाम से एक सेक्शन हुआ करता था, जिसमें भारतीय सूफ़ी-संतों पर भी लेख छपते थे। हज़रत अब्दुल कुद्दूस गंगोही पर एक लेख हमारी नज़र से गुज़रा। यह पूरा लेख धार्मिक राजनीति से प्रेरित लगता है और इसमें हज़रत की धार्मिक सहिष्णुता के पहलू को जान-बूझकर बड़ी समझदारी से नज़रअंदाज़ कर दिया गया और उन्हें एक इस्लामिक प्रचारक के रूप में स्थापित कर दिया गया।

“गड़रिया जब अपनी ही भेड़ों को खाने लगे, तब समाज को फ़ायदा गोबर का और नुकसान भेड़ों का होता है...” 

हज़रत अब्दुल कुद्दूस गंगोही को जानने वाले जानते हैं कि वह अलखदास के नाम से भी कलाम लिखते थे। इन कलाम का संग्रह ‘अलख-बानी’ के नाम से प्रकाशित है। इनको पढ़कर एक दूसरा पक्ष भी उजागर होता है, जो विशुद्ध हिंदुस्तानी सूफ़ीवाद है।

सूफ़ी-संतों ने न सिर्फ़ भाषा के विकास पर कार्य किया है, बल्कि इन्होंने इस साझा संस्कृति के पैरहन में अपने कलाम से जड़ी-गोटे भी लगाए हैं। हिंदी-साहित्य में सूफ़ी-संतों के साहित्य पर बहुत कम कार्य हुआ है। हज़ारों ऐसे सूफ़ी कवि हैं जिनकी रचनाएँ अभी तक हिंदी में प्रकाशित होने का इंतज़ार कर रही हैं। इन कवियों का अध्ययन किए बग़ैर हिंदी और उर्दू दोनों का अध्ययन अधूरा है। जो साहित्य दोनों भाषाओं के बीच का पुल होना चाहिए था, वह ‘नो मेंस लैंड’ बनकर रह गया है।

यह साहित्य बहुत मायनों में ख़ास है। हज़रत मख़दूम ख़ादिम सफ़ी साहब के उदाहरण से इसे समझते हैं। हिंदी के ज़्यादातर विद्वान (मुझे यक़ीन है) इनका नाम तक नहीं जानते होंगे। इनका विसाल (मृत्यु) सन्—1870 ई. में हुआ। इनकी रचनाओं पर भी अब एक नज़र डाल लेते हैं—

भजन

अपने माँ देखो दीदारा
बिन गुर भेद न पैहौ हमारा
खोल के आँखें ज़रा तुम देखो
नाएब रसूल है पीर हमारा
भला चाहो तो अबहिन सूझो
नाहीं तो पड़िहौ बीच मंझधारा
अजपा जाप करो भाई मोरी
मिट जइहैं सब धोका तुम्हारा
कहत ‘ख़ादिम’ अपने सफ़ी सूँ
‘अली और नबी का हमका सहारा  

होरी

ख़्वाजा अ’रब मोरी रंग दे चुनरिया
चूनरी रंग के हमका ओढ़ाइन
और बंधाइन बसंती पगड़िया
बलिहारी उन नैनन की मैं
नेक नजर से कर दे नजरिया

बसंत

अब की बसंत हैं बहुत सुहावन
सय्याँ रे मोरे पास
तन में मन में देखो रहे हैं छाए
जैसे फूलन माँ बास
बन-बन में हैं चोबन फूले
फूला कुसुम फूली कपास
कहत ‘ख़ादिम’ अपने सफ़ी सूँ
पूरी भई मोरी आस

गागर

गागर हमरी हाथ से अपने
बार-बार भरि देत
आप देखत और आपी दिखावत
जिया हमरा हैं लेत
ऐसे खिलार के बल-बल जैहैं 
हम का दिलावत जीत
कहत ‘ख़ादिम’ अपने सफ़ी सूँ
लाग गया तुम से हेत

उनके द्वारा रचित ऐसे पदों की भरमार है। अब इन पदों को देखिए और समझिए कि भाषा की दृष्टि से ये सभी पद कितने महत्त्वपूर्ण हैं। हिंदी-साहित्य के अध्ययन में इन सूफ़ी-संतों की रचनाओं को क्या शामिल नहीं होना चाहिए? ऐसे अनेक सूफ़ी-संत हैं, जिनकी रचनाएँ हिंदी में प्रकाशित होने और हिंदी-साहित्य के इतिहास पर एक पुनर्दृष्टि का आमंत्रण दे रही हैं। 

हिंदी-साहित्य में सूफ़ी-साहित्य के नाम पर बस सूफ़ी प्रेमाख्यान मिलते हैं, जिन पर नाम बदलकर शोध होते रहते हैं। इन सूफ़ी प्रेमाख्यानों के इतर एक विशाल साहित्य है, जो अब तक प्रकाशित नहीं हुआ। इस तरफ़ हिंदी के शोधकर्ताओं का ध्यान अवश्य जाना चाहिए।

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अगली बेला में जारी... 

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