लिखने का सही समय
आतिश कुमार
27 अक्तूबर 2025
लिखने का सही समय क्या होता है? शायद वही समय—जब भीतर कुछ बेचैन करता है, चुपचाप करवटें बदलता है और शब्द बनकर बाहर आना चाहता है।
बचपन में जब पहली बार पेंसिल उठाई थी तो यह नहीं पता था कि उससे करना क्या है। पिता की डाँट से बचने के लिए हमने अपनी पेंसिल को कोरे काग़ज़ पर घुमाना शुरू किया। फिर स्कूल में दाख़िला हुआ। वहाँ टीचर ने बोला, “लिखना तो सीख गए हो, अब सुलेखन सीखो।” उस समय कर्सिव राइटिंग का दौर था। जो जितनी स्टाइल में लिखता, वही क्लास का टॉपर। मैंने भी ख़ूब कोशिश की, लेकिन मुझसे हो नहीं पाया। आख़िर में थक हारकर मैंने कर्सिव छोड़कर सीधा-सादा लिखना चुना। तब लगा, शायद लिखने की लड़ाई यहीं ख़त्म हो गई; लेकिन नहीं, जंग तो अभी शुरू हुई थी।
समय बीतता गया और लिखने को लेकर यह द्वंद्व मेरे अंदर चलता रहा। कई इवेंट्स और वर्कशॉप में गया तो पाया… सबका सवाल एक ही था—“लिखने का सही समय क्या है… कब शुरू करें?”
इस सवाल का जवाब जब मैं ख़ुद ढूँढ़ने निकला तो एक मुलाक़ात में किसी ने बताया, “100 kilograms of reading will yield one gram of writing.” मतलब, जब तक भीतर शब्दों और अनुभवों का घड़ा नहीं भरेगा, तब तक उससे कुछ छलकेगा नहीं। लिखने की पहली सीढ़ी ही है—पढ़ना।
इसी बात को एक इंटरव्यू में लेखक श्रीधर राघवन ने बेहद ख़ूबसूरती से समझाया था। उनसे पूछा गया, “लिखने के लिए सबसे ज़्यादा क्या ज़रूरी है?” उन्होंने कहा, “किताबें पढ़ो क्योंकि उनसे ही तुम दूसरे किरदारों की ज़िंदगियाँ जी सकते हो। जब तुम कोई किताब उठाते हो तो किसी और के जीवन में दाख़िल हो जाते हो और जब तक वह किताब ख़त्म नहीं होती, तुम उसके साथ जीते हो।” इसलिए जब भी मौक़ा मिले—पढ़ो। डिप्रेस्ड हो—तो पढ़ो। ख़ुश हो—तो पढ़ो। अकेले हो—तब तो और पढ़ो। किसी एजेंडा से नहीं—सिर्फ़ आनंद के लिए पढ़ो। और आनंद के लिए ही लिखो।
ये शब्द इतने सच्चे और साफ़ थे कि मेरे भीतर गूँज गए। लेकिन लिखना, कोई मैथ्स का सवाल तो है नहीं। इसलिए इसका कोई एक फ़ॉर्मूला नहीं हो सकता। सच तो यह भी है कि सिर्फ़ किताबें और फ़िल्में ही नहीं, असली लेखन ज़िंदगी से भी आता है। विज्ञान कहता है कि हमारे भीतर विचार तब पैदा होते हैं जब दिमाग़ में हलचल होती है। इसलिए लोगों से मिलो, नई-नई जगहें देखो, यात्रा करो। और अगर दुनिया घूमने का बजट नहीं है तो पास के गली या गाँव ही चले जाओ। लिखने के लिए ज़िंदगी जीनी पड़ती है—काटनी नहीं।
और अगर आप पहले से इस लेखनी के संसार में हैं तो अपनी चमड़ी थोड़ी मोटी करनी पड़ेगी। रिजेक्शन यहाँ रोज़ का हिस्सा है। इसे समझने के लिए अमेरिकी लेखक टॉम बेनेडेक की कहानी याद रखिए, जिनके गैराज में ढेरों अधूरी पटकथाएँ पड़ी थीं। कुछ इतनी शानदार कि शायद मार्टिन स्कॉर्सेसी या स्टीवन स्पीलबर्ग भी उन्हें चुन लेते। एक दिन उन्होंने उन अधूरी पटकथाओं को हवा में उछाला और शॉटगन से उन पर गोली चला दी। बाद में यह प्रदर्शन ‘Shot by the Writer’ न्यूयॉर्क में प्रदर्शनी बन गया। यही है वह रवैया जिसकी ज़रूरत हर लेखक को है। पूरी-तो-पूरी अपनी अधूरी रचनाओं पर भी खुलकर गोली चलाने का साहस क्योंकि लिखना किसी पुरस्कार या प्रकाशन का इंतज़ार नहीं बल्कि भीतर की चिंगारी को जलाए रखने की ज़िद है।
और जब भीतर यह आग जल उठे… वही है लिखने का सही समय।
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