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‘बिना शिकायत के सहना, एकमात्र सबक़ है जो हमें इस जीवन में सीखना है।’

जैसलमेर
10 मई 2023 

आज जैसलमेर आया हूँ। अपनी भुआ के यहाँ। बचपन में यहाँ कुछ अधिक आना होता था। अब उतना नहीं रहा। दुपहर में साथी के साथ हमीरा जाना हुआ। दिवंगत साकर ख़ान के घर। जीवन में लय का बहुत महत्त्व है। घर में चारों ओर मनुष्य, मिठास और संगीत। घर जैसे सचमुच साकर। आह! क्या तो जीवन-राग! 

साकर ख़ान ने उम्र पूरी कमायचा बजाया। उनके प्राचीन कमायचे पर लगभग तीन पीढ़ियों की राग-स्मृति जुड़ी है। कितने ही मांगणियार इस घर से कमायचे की तालीम लेकर देश-दुनिया में आगे बढ़े। साकर ख़ान के तीनों बेटे—दरे ख़ान, घेवर ख़ान, फ़िरोज़ ख़ान, संगीत में एकदम निपुण। दरे ख़ान—साकर ख़ान की विरासत के असली वारिस हैं। कमायचे की राग में जो लय छूटती है, वह दरे ख़ान के शरीर पर दिखाई पड़ती है। वाद्य पर नज़र से अचानक श्रोताओं के सामने देखना—रति के बीच की धीमी गति जैसा है। अस्ल में यह कमायचे का चरम है। झीना और अधिक आत्मिक। घेवर ख़ान की तबीयत ठीक नहीं थी, लेकिन लेली का अभ्यास उनके रक्त में है। लेली मसकरी से भरा गीत है, जिसे घेवर जी हमें सुना रहे—

लेली कै हूँ लाडकी
घणां भाइयां री बाई
पींचै जेड़ौ खामद मिळ्यौ
म्हनौ वन मां आं'न रुळाई
लैली मांजै अमरकोट सां आई!

• 

जयपुर
11 जून 2023 

लंबे समय बाद जयपुर लौटा हूँ। कुछ समय ठहरने के लिए। मेरे लिए ठहराव हमेशा एक भारी ठहाका है। मैंने हमेशा इसका मज़ाक़ उड़ाया, परिवार से प्रेम तक में। सामाजिक स्थितियाँ बहुत क्रूर हो गई है। चारों ओर चमकीले परिणाम है। स्टेटस से स्टेटस टोचन है। स्टेटसों का अपना एक पदानुक्रम है। सोचता हूँ कि क्या होगा मेरा? कैसे बच निकलूँगा इन भयानक क्रूरताओं से, जहाँ हर थड़ी से गली तक मेरिटें है। कहीं प्रोविजनल लिस्टें पग-पग पर हाँफ रहीं तो कहीं पॉइंट्स से रहा युवक दो सिगरेटों से आयोग को लानतें भेज रहा। सूबे में सरकार के अंतिम दिन हैं, अपने को रिपीट करने के लिए वह हर दिन नए परिणाम निकालती है, और इन परिणामों से निकलती 'टीका और अन्य कहानियाँ' हर प्रोग्रेसिव क़दम को पीछे कर देती है। मुआशरे में कुछ अधिक स्पृहणीय बचा है, तो वह है हरमेस महत्त्वपूर्ण बने रहना। ऐसे समय में विन्सेंट वॉन गॉग का एक सुरक्षित कर रखा कथन याद आता है—‘‘बिना शिकायत के सहना, एकमात्र सबक़ है जो हमें इस जीवन में सीखना है।’’



जयपुर
जुलाई 2023, तारीख़ याद नहीं

यहाँ एक निजी लाइब्रेरी है। लाइब्रेरी की यह अवधारणा इस देश की ख़ुद की है। अस्ल अर्थों में यह एक बड़ा व्यवसाय है। प्रतियोगियों के लिए लाइब्रेरी कहा जाने वाला यह स्थान किताबों से रिक्त है। आपकी अपनी किताबें आपको ले जानी है और इस विशाल वाचनालय में आपको हज़ार रुपए के बदले वाई-फ़ाई, वातानुकूलित वातावरण और एक सीट मिलेगी। नियत सीट का अलग शुल्क है, अनियत का अलग। मेरी सीट अनियत है। हर तरफ़ ज्ञान से भरे उद्धरण है। ‘डर के आगे जीत’—से थोड़े अधिक अद्यतन कोटेशन। मैं यहाँ नेट की तैयारी के सिलसिले से कुछ समय हूँ। प्रथम प्रश्न-पत्र की लिजलिजी भाषा से उकता गया हूँ। अधिगम, निकष संबंधित परिक्षण, द्विचर विकर्षण जैसे गूगल अनूदित बकवास शब्दों को पढ़ना इन सबके प्रति एक क़िस्म की घृणा पैदा करने का अवसर देता है। पखवाड़ा हुआ यह सब पढ़ते। कोई दो बरस बाद प्रतियोगी किताब पढ़ रहा हूँ, लेकिन मेरी नसें मुझे परेशान करती है, उनमें स्वतंत्रता का लहू घूमने लगता है। कुछ अधिक सोचता हूँ कि अचानक मेरे युग के महाबेरोज़गारों में से एक कवि-मित्र का फ़ोन आ जाता है। वे किसी अमेरिकन ब्रांड की व्हिस्की से स्नेह कर रहे होते हैं। हमारी व्याख्याएँ और अंतहीन व्यथा-कथाओं का जब कोई अंत नहीं होता तो वे आशा-अमरधन अवस्था में कहते हैं—‘टूटेगा तिलिस्म बंधु, टूटेगा!’ 


सूरत
सितंबर 2023, तारीख़ फिर याद नहीं आ रही   

यह  मूलत: कामगारों का शहर। रोटी और जूण के मध्य संवेदनशील संघर्ष। प्रवासियों के इस शहर की अपनी रोचक कथाएँ हैं। किसी का धंधा सेट हो जाए तो उसकी एक सामाजिक प्रतिष्ठा बनती है। हर समाज के संगठन बने हुए हैं। उनके वार्षिक आयोजन होते हैं। उन्हें वे लघुगर्व में गिनते हैं। इतना पुरातन शहर कि किसी होटल से सद्यसहवासित निकले, नज़र नहीं आता। कामगारों में नब्बे फीसद मारवाड़ी है। मारवाड़ी का अर्थ राजस्थानियों से है न कि राजस्थान के एक इलाक़े से। एक बड़े मगरमच्छ-सा यह शहर आधे भारत को कपड़े पहनाता है। आज हर चौथे दिन की तरह ख्यात समाजवादी अर्जुन देथा जी का फोन आया। अर्जुन जी मेरे दादा के साथ रहे हैं। परिचय में पारिवारिक लेकिन मुलाकात बहुत देर से हुई। बारह की उम्र में लोहिया से मिले। प्रभावित हुए। फिर जॉर्ज फ़र्नान्डिस के संपर्क से देस के तमाम समाजवादियों से उनकी मित्रता रही। वे लंबे समय तक जनता दल (सेक्युलर) के अध्यक्ष रहे। जारी बातचीत में जातिगत जनगणना के मुद्दे को लेकर उन्होंने हताशा व्यक्त की। बोले ओबीसी इस देस की सबसे डफोळ क़ौम है। जंतर-मंतर पर पहलवानों के धरने की बातचीत चली। अचानक उदास हो बोले—‘‘आपां आळा कई गयाबीता उवां नानकियां माथै गळत टीप करै, निसरमा केथ रा ई।’ (हमारे वाले कई गए-बीते बेशरम उन लड़कियों पर अनर्गल टिप्पणी किए जा रहे हैं।)

दिल्ली
8 अक्टूबर 2023

सुबह हुई है। गाँव की याद आई है। याद आया है थोड़ा समाज भी। एक कविता प्रभात की भी याद आई। इंटरनेट का ज़माना है। अचानक ख़बर मिली है—पास के गाँव की। एक स्त्री टाँके में गिर गई है। मेरी आँखों के आगे अँधेरा नहीं है। बीते कई बरसों से ये ख़बरें सामान्य होती जा रहीं। घर बैठी माँ को याद करता हूँ। समाज दिनोदिन अपने झंडे ऊँचे करता है। स्नेह-मिलनों में जमा ‘प्रगति’ पर बात होती है और टाँकों-नहरों में तैरती लाशें मुक्ति का मारग ढूँढ़ती हैं। प्रिय कवि अर्जुनदेव चारण की एक कविता याद आती है— 

ओ क्यूं होवै मां
थारी जूण रा
पगोतिया चढतौ इतियास
चांणचक
होय जावै पांगळौ
अर
म्हनै लाधै
तालर
झाळां झिलियोड़ौ


म्हैं कीकर बाचूं
ओ अधूरौ इतियास
इण मांय
थारी जूण तौ है ई कोनी!

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