प्रेम को वही जानता है जो समझ गया है कि प्रेम को समझा ही नहीं जा सकता।
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अकेलेपन में भी कुछ है जो नितांत आकर्षक है, सर्वथा सुखकर है लेकिन अफ़सोस कि उसे पा सकना अकेले के बस का नहीं।
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यदि प्रथम साक्षात् की बेला में कथानायक अस्थायी टट्टी में बैठा है तो मैं किसी भी साहित्यिक चमत्कार से उसे ताल पर तैरती किसी नाव में बैठा नहीं सकता।
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प्रेम किन्हीं सयानों द्वारा बहुत समझदारी से ठहरायी जानेवाली चीज़ नहीं।
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प्रेम होता ही अतिवादी है। यह बात प्रौढ़ होकर ही समझ में आती है उसके कि विधाता अमूमन इतना अतिवाद पसंद करता नहीं। खैर, सयाना-समझदार होकर प्यार, प्यार कहाँ रह पाता है!