कुबेरनाथ राय के निबंध
उत्तराफाल्गुनी के आसपास
वर्षा ऋतु की अंतिम नक्षत्र है उत्तराफाल्गुनी। हमारे जीवन में गदह-पचीसी सावन-मनभावन है, बड़ी मौज रहती है, परंतु सत्ताइसवें के आते-आते घनघोर भाद्रपद के अशनि-संकेत मिलने लगते हैं और तीसी के वर्षों में हम विद्युन्मय भाद्रपद के काम, क्रोध और मोह का तमिस्र
निषाद बाँसुरी
सप्तमी का चाँद का कब का डूब चुका है। आधी रात हो गयी है। सारा वातावरण ऐसा निरंग-निर्जन पड़ गया है गोया यह शुक्ला सप्तमी न होकर शुद्ध नए-चंद्र निशा हो। अभी-अभी हमारी नाव 'झिझिरी' अर्थात नौका-विहार खेलकर लौटी है। नाव को तट से बाँधकर चंदर भाई फिर ‘गलई’
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere