काका कालेलकर के यात्रा वृत्तांत
प्रयागराज और अमरपुरी वाराणसी
बैसाख का महीना था। गर्मी सख़्त पड़ रही थी। हमारी गाड़ी मध्य हिंदुस्तान के विस्तीर्ण प्रदेश में से दौड़ने लगी। डिब्बे इतने गर्म हो गए थे, मानो डबल रोटी की भट्टियाँ हों। हर एक स्टेशन पर पानी पीने पर भी गला सूखा जाता था। जी बेचैन रहता था। फिर भी, इक चीज़
बोधि गया
बोधिगया कोई ऐसा-वैसा तीर्थ नहीं है। बोधिगया का नाम सुनते ही माथा भक्ति से झुक जाता है। पुराने ज़माने में जिस स्थान को 'उस्वेला' कहते थे। आज से ढाई हज़ार वर्ष पहले नेरंजरा नदी के तीर पर इस वन में एक पीपल के पेड़ के नीचे एक युवक बैठा था। उसका शरीर सूखकर
गया का श्राद्ध
दुनिया की हर एक वस्तु मरती है, मरता नहीं अकेला एक भूतकाल। भूतकाल चिरंजीव है। महासागर में भाटा आता है, चंद्र का क्षय होता है, कुबेर निर्धन होता है, पर्वत घुल जाते हैं, साम्राज्य स्मृति-पटल से मिट जाते हैं, लेकिन लोकक्षयकृत् भूतकाल का क्षय नहीं होता। भूतकाल,
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere