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जैनेंद्र कुमार

1905 - 1988

प्रेमचंदोत्तर युग के समादृत कथाकार, उपन्यासकार और निबंधकार। गद्य में मनोविश्लेषणात्मक परंपरा के प्रवर्तक।

प्रेमचंदोत्तर युग के समादृत कथाकार, उपन्यासकार और निबंधकार। गद्य में मनोविश्लेषणात्मक परंपरा के प्रवर्तक।

जैनेंद्र कुमार की संपूर्ण रचनाएँ

कहानी 5

 

आलोचनात्मक लेखन 1

 

निबंध 2

 

उद्धरण 10

धर्म स्त्री पर टिका है, सभ्यता स्त्री पर निर्भर है और फ़ैशन की जड़ भी वही है। बात क्यों बढ़ाओ, एक शब्द में कहो—दुनिया स्त्री पर टिकी है।

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स्त्री ही व्यक्ति को बनाती है, घर को—कुटुंब को बनाती है, जाति और देश को भी।

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मूल्य आज संपदा और सत्ता के संग्रह का बना हुआ है। धर्म अब वह है जो बताता है कि मूल्य संग्रह नहीं बल्कि अपरिग्रह है। संग्रह में आदमी हर किसी के पास से चीज़ों को अपनी ओर बटोरता है, लेकिन इसमें वह हर किसी के स्नेह को गँवाता भी जाता है। स्नेह को खोकर चीज़ को पा लेना, पाना नहीं गँवाना है। यह दृष्टि धर्म ही देता है और वह भोग की जगह त्याग की प्रतिष्ठा करता है। इसीलिए वह राजनीति और कर्म नीति परिणाम नहीं ला पाएगी जो धर्म नीति से हीन है।

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वैज्ञानिक एकांत में विज्ञान की साधना करता है, प्रचार के लिए कुछ नहीं करता। लेकिन लगता है कि जैसे बाक़ी सारी दुनिया उसकी खोज के आविष्कार को पाने को आतुर है। विज्ञान का अन्वेषित सत्य सहज ही जगत का सत्य बन जाता है। धर्म के सत्य पर प्रवचन होते हैं, शास्त्रार्थ होते हैं, फिर भी लगता है कि वह शास्त्र में रह जाता है, मनों में नहीं लिया जाता, क्यों?

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तुम लोग इज़्ज़तों में और पर्दों में रहकर जाने किन-किन व्यर्थताओं को अपने साथ लपेट लेते हो और उनमें गौरव मानते हो। यह सब तुम लोगों की झूठी सभ्यता है, ढकोसला है। फिर कहते हो, हम सच को पाना चाहते हैं। तुम्हारा सच कपड़ों में है, लिबास में है और सच्चाई से डरने में है।

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रेखाचित्र 1

 

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