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लक्ष्मीनारायण मिश्र की नाट्य-कला

lakshminarayan mishr ki naty kala

देवराज उपाध्याय

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देवराज उपाध्याय

लक्ष्मीनारायण मिश्र की नाट्य-कला

देवराज उपाध्याय

और अधिकदेवराज उपाध्याय

    पंडित लक्ष्मीनारायण मिश्र जी के नाटकों से मेरा परिचय एक विचित्र नाटकीय ढंग से हुआ। सन् 1930 में मैं इतिहास के एम. ए. का विधार्थी था। पटने में युवक आश्रम के पास ही मढिया में रहा करता था। 'युवक' बिहार का एकमात्र सर्वप्रथम क्रांतिकारी मासिक पत्र था। जिन नवयुवकों में हिंदी-साहित्य के प्रति प्रेम था और जिनके हृदय में क्रांति की आग थी, नवयुवक आश्रम इनके लिए तीर्थस्थान था। विशेषत: बनारस विश्वविद्यालय के तरुण साहित्यिक तो सदा आते ही रहते थे।

    मिश्र जी एक बार आए थे 'सिंदूर की होली' नामक नाटक उन्होंने लिख लिया था। प्रतिलिपि करानी थी। परीक्षा सर पर खड़ी थी पर मैंने ‘सिंदूर की होली' की प्रतिलिपि तैयार कर अपने को गौरवान्वित समझा। शायद वह मिश्र जी का दूसरा नाटक था। इसके पहले वे ‘अशोक’ की रचना कर चुके थे। इन पच्चीस वर्षों में हिंदी साहित्य के अन्य अंगों की तरह नाटक का भी पर्याप्त विकास हो गया है और वह समृद्ध नज़र आता है। पर उस समय भारतेंदु और प्रसाद ये दो ही नाम नाटक के क्षेत्र में याद किए जाते थे। भारतेंदु को भी शायद लोग भूल चले थे। पारसी थियेट्रिकल नाटकों को सस्ती चमक का इंद्रजाल भी कम से कम साहित्यिक सुरुचि वालों के मन से उठ चुका था और वे प्रसाद जी के साहित्यिक नाटकों पर लट्टू, हो रहे थे। ऐसे ही अवसर पर मिश्र जी अपने नाटकों को लेकर साहित्यिक क्षेत्र में अवतरित हुए।

    अतः मिश्र जी के नाटकों पर विचार करते समय प्रसाद की नाट्य-कला को हमें सदा सामने रखना होगा। साहित्य के विकास में सदा क्रिया और प्रतिक्रिया की श्रृंखला काम करती रहती है। प्रसाद जी स्वयं पारसी नाटकों की प्रतिक्रिया-स्वरूप तथा डी. एल. राय के नाटकों के रोमांस से प्रेरणा ग्रहण कर नाटक-क्षेत्र में आए थे। उसी तरह मिश्र जी के नाटक का जन्म प्रसाद जी की साहित्य पर अग्रवादिता काल्पनिक रंगीनी और अनभिनेयता की प्रतिक्रिया के रूप में इब्सन की प्रेरणा से हुआ था।

    डॉ. दशरथ ओझा ने 'हिंदी नाटक उद्भव और विकास’ में एक स्थान पर लिखा है कि “मिश्र जी का मत है कि प्रसाद के नाटकों में रंगमंच पर जो आत्म-हत्याएँ कराई जाती हैं, संवादों में जो अस्वाभाविकता पाई जाती है, प्रेम की अभिव्यक्ति में जो लंबे भाषण कराए जाते हैं, कौमार्य को विवाह से श्रेष्ठ माना जाता है, कल्पना में जो उन्माद भरा रहता है, वह भारतीय नाटक-पद्धति के विरुद्ध है। इसी कारण वह अपने नाटकों में आत्महत्या, काव्यमय संवाद, प्रेमी-प्रेमिका के लंबे भाषण और कौमार्य-महत्व एवं कल्पना में अतिरंजन को स्थान नहीं देते। आलोचक की भी इन पंक्तियों से तथा अपने नाटकों की भूमिका में यत्र-तत्र मिश्रजी ने जो पंक्तियाँ लिखी हैं, उनमें यह स्पष्ट है मिश्रजी प्रसाद से भिन्न मान्यताओं को लेकर आए और ये मान्यताएँ ठीक प्रसाद के नाटकों के सिद्धांतों के विरोध में उत्पन्न हुई थी।

    यहाँ हम यही देखेंगे कि मिश्रजी ने हिंदी नाटक-साहित्य के लिए क्या किया? उसमें उनका अनुदान क्या है? नाटक की कथा-यस्तु तीन तरह की होती है। प्ररवात, उत्पाद्य तथा मिश्रित। जिस नाटक की रचना किसी पौराणिक एवं ऐतिहासिक कथा के आधार पर होती है उसे प्रख्यात कहते हैं तथा जिसमें नाटककार की कल्पना स्वतंत्र रूप में कथा की सृष्टि कर तत्कालीन किसी समस्या के स्वरूप को हमारे समक्ष रखती है वह है उत्पाद्य। संस्कृत साहित्य के जितने नाटक हैं वे प्राय: प्रगान हैं। भारतेंदु-युग में जब हमारा अँग्रेजी साहित्य से परिचय बढ़ा और एक नई रोशनी मिली तो हमारी आँखें खुली। मध्य-युग की दी हुई मनोवृत्ति जब दूर हुई और हम में स्वतंत्र चिंतन के भाव जागे, हमने प्राचीनता की ओर देखने की प्रवृत्ति का त्याग किया। नाटक के क्षेत्र में हमारी आधुनिकता इस रूप में परिलक्षित होती है वहाँ कल्पना ने प्रवेश किया और उत्पाद्य कथाओं की पूछ होने लगी। भारतेंदु की कल्पना ने अनेक उत्पाद्य नाटकों की सृष्टि पर आधुनिक समस्याओं को महत्व दिया।

    इस उत्पाद्यता का दर्शन भारतेंदु-युग के अन्य नाटककारों में भी पाया जाता है। आशा यही बँधती है कि आगे चलकर हिंदी में निरंतर इस प्रवृत्ति का विकास होना चाहिए। पर प्रसाद जी में यह प्रवृत्ति कुछ अवरुद्ध-सी मासूम पड़ती है। उनके सब नाटक प्रख्यात हैं जिसमें भारतीय इतिहास के किसी गौरवपूर्ण पृष्ठ को जागृत किया गया है। आधुनिकता का रंग है अवश्य पर वह प्राचीनता की भावना के सामने छिप जाता है।

    'ध्रुवस्वामिनी' में आधुनिकता तथा उनकी समस्या कुछ अधिक स्पष्ट रूप में अवश्य आई है पर कथा तो वही प्रख्यात ही है। मिश्रजी में इस प्रवृत्ति की प्रतिक्रिया पाई जाती है, मैं यह नहीं कहता कि उन्होंने प्रापान नाटक लिखे ही नहीं 'कितना की लहरें', 'दशाश्वमेघ', 'अशोक' इत्यादि तो प्रख्यात ही हैं। पर मेरा ख़याल है कि आगे चलकर हिंदी नाटकों की प्रगति का इतिहास लिखा जाएगा तो वे 'सिंदूर की होली’, 'राक्षस के मंदिर, 'संयासी’, ‘मुक्ति का रहस्य' इत्यादि के लिए ही याद किए जाएँगे। प्रसाद जी के नाटकों का कथानक जटिल होता था तथा उसमें पात्रों की भरमार रहती थी। यहाँ तक कि उनकी संख्या तीस-तीस, चालीस-चालीस तक भी पहुँच जाती थी। अजातशत्रु में तीन राजकुलों के कथानकों को इस तरह एक सूत्र में पिरोने का प्रयत्न किया गया है कि सारा नाटक उलझे हुए सूत्रों का जखीरा बन गया है और अनेक बार पढ़ने पर भी पाठकों को कथा की गति को समझने में कठिनाई होती है। दर्शकों को जिस परीक्षा तथा मस्तिष्क-भार का सामन करना पड़ता होगा वह तो कल्पना ही की जा सकती है। राम की कथा को लेकर रचित नाटक में यदि जटिलता जाए तो काम चल सकता है कारण प्रत्येक व्यक्ति राम-कथा से परिचित हैं। वह कथा की टूटी कड़ियों को अपनी कल्पना से भी जोड़कर काम चला ले सकता है पर अजातशत्रु को ऐतिहासिक जटिलता से जनता परिचित नहीं है।

    यह बात दूसरी है कि कुछ इतिहासवेत्ता ही नाटक के पाठक या दर्शक हो। पर यह नाटक की अपील को बहुत सीमित कर देना होगा। मिश्रजी ने सबसे पहली बात यही की कि कथानक को सीधा-सादा सहज और बोधगम्य बना दिया। पात्रों की संख्या स्वयं ही कम हो गई और नाटक के शरीर में एक स्फूर्ति, कांति, चुस्ती गई मानो अस्वस्थ और अतिरिक्त मास तथा वसा प्राकृतिक उपचार के कारण क्षीण हो गए हैं और स्वस्थ शरीर में ताज़े रक्त की लालिमा फैली हो। प्रसाद जी के नाटक प्राय: पाँच अंको में समाप्त होते थे तथा एक अंक में 10, 15 तक भी दृश्य हो सकते थे। मनोविज्ञान तो यही कहता है कि ज्यों-ज्यों समय बीतता है दर्शकों के धैर्य की सीमा भी छूटती जाती है।

    अतः अंकों को क्रमशः लघुता का रूप धारण करते जाना चाहिए। पर प्रसाद जी के नाटकों का अंतिम अंक सबसे वृहत्तम भी हो सकता था। मिश्रजी के नाटकों में इन मनोवैज्ञानिक त्रुटियों का सर्वथा अभाव है। ये प्राय तीन अंकों में समाप्त है, नाटकों में गीतों का सर्वथा अभाव है। भाव-वैभव और कल्पना तो है पर बौद्धिक विवेचन का आग्रह सदा वर्तमान रहा है। भाषा प्रवाहमयी, कथा को अग्रसर करने वाली है। परिस्थिति से अनुकूलता तथा स्वाभाविकता का निर्वाह करते हुए भी वह साहित्यिक रही है और दैनिक वार्तालाप के साधारण स्तर पर नहीं उतरने पाई।

    ऐसा लगता है कि मिश्रजी मन ही मन यह ठान कर चले थे कि वे पौराणिक या ऐतिहासिक आधार पर नाटकों का निर्माण नहीं करेंगे। 'नगानीको की भूमिका में उन्होंने लिखा था कि “इतिहास के गड़े मुर्दे उखाड़ने का काम इस युग के साहित्य में वांछनीय नहीं। हो सकता है कि उनके हदय में ये भाव प्रसाद जी के ऐतिहासिक नाटकों के विरुद्ध प्रतिक्रिया के रूप में उत्पन्न हुए हों। इस भाव से प्रेरित होकर उन्होंने जो कतिपय नाटक संयासी, राक्षस का मंदिर, सिंदूर की होली, प्रागोगन इत्यादि लिखे हैं इनमे ही उनकी नाट्य-कला का पूर्ण निखार दिखलाई पड़ता है। उनमें ही मिश्रजी का निमत्व मिलता है। इनमें ही संवादों की स्वाभाविकता, नदनम् संवादों का अभाव, चलने व्यावहारिक शब्दों का प्रयोग, कथानक का सीधापन, आधुनिक समस्याओं का आग्रह प्रवेश इत्यादि विशेषताएँ दिखलाई पड़ती हैं जो प्रसाद की नाट्य-कला से उन्हें पृथक कर देती हैं। यद्यपि भारतेंदु युग के नाटकों में ही बाल-विवाह, विधवा-विवाह, देश-भक्ति इत्यादि समस्याओं का प्रवेश हो चला था और नाटकों के माध्यम से विचार करने तथा इनके प्रति लोगों का ध्यान आकृष्ट करने की प्रवृत्ति उत्पन्न हो गई थी पर फिर भी हिंदी के समस्या-नाटकों के जन्मदाता मिश्रजी ही कहे जाएँगे। कारण कि उनके पहले जितने नाटककार हुए हैं वे राम-कथा या कृष्ण-कथा में निमग्न रहे और वो ही कभी आँख उठाकर तत्कालीन समस्याओं की ओर भी देख लेते हैं। प्रसाद जी चाहते हुए भी आधुनिक समस्याओं के साथ न्याय नहीं कर सके।

    उनकी प्रतिभा प्रेरणा के लिए सदा अतीत का ही मुँह जोहती रही जिससे वे पूर्ण रूप से मुक्त नहीं हो सके। पर मित्र जी हिंदी के प्रथम नाटककार हैं जो देह-भाड़ कर नवीनता के रंगमंच पर गए और उसी का जयोच्चार करने लगे और एक पर एक ताबड़-तोड़ कितने ही समस्या-नाटकों की रचना करके ही दम लिया। 'संयासी' (सं. 1988) में सह-शिक्षा की समस्या के साथ राष्ट्रीय जीवन के अनेक पहलू गए हैं। ‘राक्षस का मंदिर' (सं. 1988) आधुनिक युग के, प्रत्यक्ष गाम-जाननामग व्यक्तियों की कथा है तथा नारी-उद्धार आंदोलन के नाम पर स्थापित मातृ-मंदिरों की पोल खोली गई है। 'मुक्ति के रहस्य' (स. 1989) में आधुनिक युग के पुरुष और नारी के बीच एक दूसरे परपुरुष के स्थापन करने के लिए जो युग के यापि स्तर पर युद्ध चलता है उसका वर्णन है। ‘सिदूर की होगी' (1995) में आधुनिक मनुष्य की धन-लिप्सा तथा उसके लिए जघन्य कर्म करने की प्रवृत्ति का दर्पण है। साथ ही एक नारी के हृदय की विशालता का भी वर्णन है। 'आधी रात' (1935) में एक ऐसी नारी की समस्या छेड़ी गई जो जन्म में तो भारतीय है पर शिक्षा-संस्कार में विदेशी है। 'राजयोग' (सं. 2006) में भी विषम विवाह की समस्या उठाई गई है। इस तरह इन नाटकों को देखने में हमारे मस्तिष्क के सामने संस्कृत अलंकार-शास्त्रियों के दीर्घ-दीर्घतर न्याय की बातें याद जाती हैं। यदि पूरी शक्ति लगाकर आप बाण छोड़िए, उसके मूल में जितनी प्रेरणा-शक्ति होगी उसी के अनुरूप वह दीर्घ से दीर्घ होता हुआ अपने गंतव्य लक्ष्य-बिंदु पर जाकर ही तो दम लेगा। बीच में नहीं। उसी तरह मिश्र जी के हृदय में मौलिक समस्या नाटकों की रचना करने के जो भाव जगे हैं वे उनसे अपने अनुरूप कुछ नाटकों का प्रणयन कराकर ही शांत हुए हैं और इन्हीं नाटकों में मौलिकता की देदीप्यमान चमक है। सं. 2000 के बाद के नाटकों को देखने से ऐसा लगता है कि मिश्रजी की नाट्य-कला ने मोड़ लिया है और फिर से वे ऐतिहासिक कथानकों की तरफ़ मुड़े हैं। 'नारद की वीणा' (सं. 2003), 'गरुड़ध्वज' (सं. 2008) 'वितस्ता की लहरें’ (सं. 2010), दशाश्वमेघ (सं. 2009) ये सब इधर की रचनाएँ हैं। मिश्र जी की नाट्य-कला के इस परिवर्तन का क्या कारण है? इसका भी उत्तर मिश्र जी ने दे दिया है। प्रसाद के नाटकों से भारतीय संस्कृति और जातीय जीवन-दर्शन की जो हानि मुझे दिखाई पड़ी, भावी पीढ़ी के पथभ्रष्ट होने की आशंका मेरे भीतर उपजने लगी--उसके निराकरण के लिए मुझे ऐसे नाटक रचने पड़े जिनमें हमारी

    संस्कृति और जीवन-दर्शन का वह सत्य उतर उठे जो कालिदास और भासके नाटकों में पहले से ही निरूपित है। यह उत्तर कहाँ तक संगत तथा युक्तियुक्त है---इसपर पाठक स्वयं विचार करें। मेरा कहना यह है कि कोई कृतिकार अपनी कृति के बारे में जो-कुछ कहता है वह सर्वथा निर्भ्रामक हो यह कोई निश्चित नहीं है।

    जब कोई अपनी रचना के बारे में कुछ विचार करने लगता है तो वह भी एक साधारण पाठक की स्थिति में जाता है। कारयित्री और भावयित्री प्रतिभा एकदम अलग-अलग शक्तियाँ रही हैं और उनका क्षेत्र भी अलग-अलग रहा है। जहाँ तक आलोचना करने का प्रश्न है, रचनाकार की कोई विशिष्ट स्थिति नहीं होती बल्कि यह भी हो सकता है कि एक साधारण तटस्थ आलोचक किसी रचना के बारे में जो विचार व्यक्त करे वह अधिक संगत तथा विश्वासनीय हो : कारण कि वह थोड़ी तटस्थता से काम ले सकता है। रचनाकार की आत्म-निष्ठता उसे गलत ढंग से भी देखने को प्रेरित कर सकती है।

    मिश्रजी के नाटकों में इस परिवर्तन का अर्थात् उत्पाद्यता से हटकर व्याख्या स्तर की और मुड़ने का कारण दूसरा है। भले ही मिश्र जी के चेतन मस्तिष्क पर वह स्पष्ट होकर नहीं आता हो और आया भी हो तो छद्भवेश में दूसरा रूप धारण कर—ठीक उसी तरह जिस तरह हमारे स्वप्न हमारी कुछ मूल भावनाओं के परिवर्तित तथा मांजित रूप होते हैं। मिश्र जी की अंतश्चेतना प्रसाद और उनकी कला से प्रभावित है। वह महसूस करती है कि नाटक को आज के युग में भी इतिहास तथा पौराणिक कथाओं के आधार से गड़े-मुर्दे उखाड़ने के नाम पर वंचित कर देना उनके हाथ से एक बटे साधन को छीन लेना होगा जिसके द्वारा वह मानव का हृदय स्पर्श करता है। ...पर कुछ तो नूतनता के प्रभाव में आकर और कुछ नई चीज़ देने की प्रवृत्ति के कारण भी मनुष्य 'पुराणमेतत् साधु मर्व' वाले सिद्धांत को खींचकर दूर तक ले जाता है और क्रांति के नाम पर अपने को पुजवाना चाहता है। यह भावना मिश्र जी में अवश्य काम कर रही थी। नहीं तो बात-बात में प्रसाद जी का नाम लेने का क्या अर्थ हो सकता है?

    स्पष्ट है कि प्रसाद जी की कला के वे कायल हैं। संभव है परिस्थितियों के कारण उनके अंदर प्रसाद की नाटय-कला के प्रति विद्रोह के भाव जगे पर उनके अंदर कहीं कहीं आदर-भावना भी दुबकी पड़ी थी जो ज्वार उतर जाने पर फिर उभर आई। इस मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया के रूप को हम स्वर्गीय महावीरप्रसाद जी द्विवेदी के जीवन से देख सकते हैं। द्विवेदी जी से बढ़कर हिंदी साहित्य का हितैषी और अंग्रेज़ी मत का विद्रोही कौन होगा? पर उनके साहित्य के किसी पाठक को यह बतलाने की आवश्यकता नहीं कि उनपर अंग्रेज़ी की छाप कितनी गहरी थी—उन्होंने जो कुछ लिखा है वह 80 प्रतिशत अंग्रेज़ी साहित्य से प्रभावित है। फिर भी वह अंग्रेज़ी का अधानुसरण मात्र नहीं। उसमें द्विवेदी जी का निजत्व है। उन्होंने उसे अपने रंग में इस तरह ढाल दिया है कि वह बिल्कुल स्वदेशी बन गया है। उसी तरह मिश्र जी के सारे नाटक विशेषतः इधर के ऐतिहासिक नाटक प्रमाद जी के ही प्रभाव से लिखे गए हैं फिर भी प्रसाद का 'चंद्रगुप्त' और मिश्र जी का ‘वितरता की लहरें' एक ही क़िस्म की चीज़ें नहीं हैं। लेकिन यह भी ठीक है कि इन नाटकों में प्रमाद जी की कला का स्पष्ट प्रभाव दिखलाई पड़ता है। संवादों को लीजिए। हम मिश्र जी के नाटकों को दो श्रेणियों में विभाजित कर लें—उत्पाद और प्रख्यात काल की दृष्टि से इन्हें पूर्व 20वीं शती बिमार हैं और दूसरे को विक्रम बीसवीं शताब्दी तो हम पाएँगे कि दूसरी श्रेणी के नाटकों के संवाद अधिक गंभीर भावनात्मक, भावपूर्ण तथा लंबे हैं फिर भी इनमें प्रसाद के संवादों की गतिहीनता दार्शनिकता तथा वोभिनता नहीं है। उदाहरण लीजिए ययन विजय की यह कथा हमारी भाषा में नहीं लिखी जाएगी। नींद में मोए अजगर को जम्भुख ने दाँस मारा है। अजगर की नींद समय पर खुलेगी तब यह भी मर चुका रहेगा। अपने नाम का नगर जो यह बसाता चला रहा है... उन नगरों को नहीं रहने होगा। यवन विजय के, ऐसे पाताल में गाढ़े जाएँगे कि भावी पीढ़ी को इसका पता भी नहीं चलेगा। क्षत्रिय की असि का कलक ब्राह्मण की लेखनी पर नहीं चढ़ेगा। (वितस्ता की लहरें)। ये पक्तियाँ साधारण बोल-चाल की भाषा की नहीं है।

    ऐसा लगता है कि प्रसाद जी ज़रा नीचे उत्तर आए हों और मिश्र जी ऊपर उठ गए हों और दोंनो के मिलन बिंदु पर भाषा की सृष्टि हो। मिश्र जी प्रथम व्यक्ति हैं जिन्होंने हिंदी में नाटककार की प्रमुखता की स्थापना की। उनके पूर्व के नाटककार मंच-निर्देश नहीं देते थे अतः प्रबंधक को पात्रों की वेशभूषा, वातावरण, अभिनय, अंग-संचालन के रूप को निश्चय करने की पूरी स्वतंत्रता रहती थी और इसके कारण कहीं-कहीं अर्थ का अनर्थ हो जाता था। यह कोई आवश्यक नहीं कि निदेशक नाटक की आत्मा को ठीक तरह से हृदयगम कर ही सके। मिश्र जी ने अपने नाटकों में रंग-निर्देश पूर्ण रूप से दिए हैं। अतः मंच-प्रबंधक के अनुचित हस्तक्षेप से नाट्य-कला की रक्षा की है। कहने का अर्थ यह कि मिश्र जी को नाट्य-कला में भारतीय आत्मा अपने वास्तविक गौरव के साथ नई साज-सज्जा में प्रगट हुई है। इनमें यूरोप के विकसित नाटकों की पद्धति का पूर्ण रूप से उपयोग किया गया है। लेकिन इतने से ही यह नहीं कहा जा सकता वे भारतीय मान्यताओं के प्रतिकूल हैं।

    उन्होंने सदा ही पति-पत्नी के संयत और कर्तव्य की सीमा में आवद्ध प्रेम को स्वच्छंद तथा वैयक्तिक प्रेम से श्रेष्ठ बताया है। विधवा-विवाह को उन्होंने कभी भी उतने महत्त्वपूर्ण रंग में रंगकर चित्रित करने का प्रयत्न नहीं किया है। ऐतिहासिक नाटकों में हिंदी नाटककारों का ध्यान उत्तर भारत के इतिहास के गौरवमय पृष्ठों तक ही सीमित रहता था, पर मिश्र जी का ध्यान प्रागैतिहासिक युग तथा दक्षिण-भारत के इतिहास की और भी गया है। 'नारद की वीणा' (सं. 2003) का निर्माण एक प्रागैतिहासिक काल की घटना के आधार पर हुआ और इसमें आर्यों के संघर्ष की एक झलक दिखलाई गई है। 'कावेरी' कुल तीन एकांकियों का संग्रह है। इसमें दक्षिण भारत की कथा है।

    इस तरह हम देखते हैं कि हिंदी नाट्य-कला दक्षिण भारत के इतिहास को भी अपना संरक्षण और पोषण देने लगी है। हिंदी नाट्य-कला की प्रगति की दृष्टि से इसे मैं एक बड़ी बात मानता हूँ। यह हिंदी साहित्य की सफलता और दृष्टि व्यापकता का चिह्न है। आज जब हम हिंदी के अन्य नाटककारों की रचना को देखते हैं तो यही कहना पड़ता है कि मिश्र जी ने हिंदी नाटकों को जिस स्थान पर लाकर छोड़ दिया था, वह वहीं पर ज्यों का त्यो है। हिंदी नाटक-साहित्य में मिश्र जी की देन क्या? उसे यो समझिए तो बातें स्पष्टतर होगी। हिंदी नाट्य-साहित्य में चाहो जो कुछ घटना घटे पर एक बात नहीं होगी। वह यह प्रसाद के रोमांटिक कल्पना-प्रधान नाटकों के दिन लद गए। उन्हें फिर से पुनर्जीवित करने वाला नाटककार मनमृग बड़ा साहसी होगा! इसका श्रेय मिश्र जी को जाता है, भविष्य में जो भी नाटक हिंदी में लिए जाएँगे उनकी रचना मिश्र जी की पद्धति पर होगी या उसी का कोई विकसित रूप होगा।

    यथा उतने विश्वास के साथ कोई कह सकता कि मिश्र जी द्वारा प्रवर्त्तित नाटक-शैली की जड़ को किसी नूतन प्रतिभा ने ज़रा भी टस में मस किया है। सबसे बड़ी बात यह कि मिश्र जी ने हिंदी-नाटक को एक उपयुक्त शरीर दिया है। प्राणी का संपादन तो पहले भी था पर शरीर के प्रभाव में उसका महत्व नगण्य है। कालिदास ने दिलीप के दिव्य वधु का वर्णन करते हुए लिखा है।

    टयूबोररको परपन्य शालप्रामुमहाभुज

    प्रात्मकर्मक्षमवेह धाम्रो धर्म श्यापर:

    (रघु. 1-13)

    ठीक उसी तरह मिश्र जी ने हिंदी नाटक को ‘नाट्य-धर्म... आत्मकर्म क्षम देह’ से समन्वित किया है। सरल स्वाभाविक अंतर्जगत के चित्रण में समर्थ भाषा, सीधा-साधा कथानक तथा अभिनय, अंकों एवं दृश्यों का संतुलित विभाजन और आप चाहते ही क्या हैं? हिंदी नाटकों के ही विगत अर्द्धशताब्दी की प्रगति को देखता है तो मेरी कल्पना के सामने मनोविज्ञान के मान-सिद्धांत (Law of association) के सहारे 19वीं शताब्दी के अंग्रेज़ी नाटकों का इतिहास उपस्थित हो जाता है। 91वीं शताब्दी जहाँ साहित्य के अन्य रूप-विधानों में समृद्ध रही, काव्य-वैभव का वैसा युग कभी आया ही नहीं पर नाटकों के लिए तो यह युग दरिद्र ही रहा। 18वीं शताब्दी अंत में प्रकाशित निरन वे 'school for scandal’ और आस्कर वाइल्ड या वर्नार्ड शॉ की प्रारंभिक सुशांत नाट्य-कृतियों के बीच कोई ऐसी रचना देखने में आई जो नाटक नाम को सार्थक कर सके। रोमांटिक कवियों ने कुछ नाटक जैसी चीज़ें लिखी अवश्य हैं पर उनमें कल्पना का प्रवाह, हृदयस्थ स्वच्छंद भावों की अभिव्यक्ति ही प्रधान हो गयी है और उनकी नाटकीयता छिप गई है। ठीक इसी तरह कहा जा सकता है कि हिंदी का छायावाद जो अंग्रेज़ी के रोमांटिक वाक्य में ही धनुस्थ है हमें एक भी नाटक नहीं दे सका पर छायावादी युग इस बात में सौभाग्यशाली है कि इसके प्रारंभ से ही, इसके कैम्प से ही विद्रोह का अंकुर निकला जिसने अनाटकीयता के लांछन से इसे मुक्त करने का सफल प्रयत्न किया। मैं इसलिए कह रहा हूँ कि मिश्र जी ने भी अपना साहित्यिक जीवन वैयक्तिक उद्गीतियों के संग्रह—अंतर्जगत से ही प्रारंभ किया था जिसमें हृतत्री के तार की झंकार ही अधिक प्रमुख थी।

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतीय नाट्य साहित्य, संपादक- नगेन्द्र (पृष्ठ 334)
    • संपादक : नगेन्द्र
    • रचनाकार : डॉ देवराज उपाध्याय
    • प्रकाशन : सेठ गोविंददास हीरक जयंती समारोह समिति नई दिल्ली

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