संकलन-त्रय
नाट्यालोचन में पुराकाल से समय, स्थान और कार्य के संकलनों की चर्चा होती आई है। अरस्तु के 'काव्य-शास्त्र’ में तीनों संकलनों का उल्लेख मिलता है। महाकाव्य और दुखांत नाटक के अंतर को स्पष्ट करते हुए अरस्तू ने बतलाया है कि दुखांत नाटक में यथासाध्य घटना को एक दिवस अथवा अपेक्षया कुछ अधिक काल तक सीमित कर देने का प्रयास देखने में आता है जबकि महाकाव्य में समय का ऐसा कोई बंधन नहीं होता।
अरस्तू के उक्त उल्लेख में एक प्रचलित प्रथा का निर्देश मात्र है, समय-संकलन जैसे किसी नाटकीय नियम की व्यवस्था नहीं। इसके अतिरिक्त जिस प्रचलित प्रथा का निर्देश किया गया है, उसका भी प्राचीन नाटकों में, सर्वत्र दृढ़ता से पालन नहीं हुआ है, प्राचीन नाट्यकारों की कृतियों में इसके भी अनेक अपवाद देखने को मिलते हैं।
दुखांत नाटकों में घटना को एक दिवस-पर्यंत सीमित कर देने की जो बात ऊपर कही गई है, उस प्रसंग में अरस्तू ने एक दिवस के लिए 'सूर्य के केवल एक संक्रमण' (A single revolution of the sun) का प्रयोग किया है। 'सूर्य के केवल एक संक्रमण' का तात्पर्य 24 घंटों से है अथवा 12 घंटो से—इसको लेकर भी समीक्षकों में बहुत मतभेद चला। कार्नील ने 24 घंटों के पक्ष में अपना मत प्रकट किया किंतु अरस्तू के प्रमाण के आधार पर ही कुछ खींचातानी करके उसने 30 घंटों की अवधि निर्धारित की, यद्यपि इस अवधि को भी उसने अवरोधक ठहराया। डेसियर (Dacier) ने इस अवधि को 12 घंटों की माना और कहा कि ये 12 घंटे दिन या रात, किसी के भी हो सकते हैं अथवा दोनों के आधे-आधे हो सकते हैं। उसकी दृष्टि में दुखांत नाटक का आदर्श तभी उपस्थित होगा जब यथार्थ और नाटकीय जगत की घटनाओं के काल-यापन में समीकरण स्थापित हो जाए। किंतु समय-संकलन के निर्वाह में इस प्रकार की कठोरता का पालन एक प्रकार से अव्यावहारिक ही रहा।
स्थान-संकलन से तात्पर्य यह है कि नाटक में ऐसे किसी भी स्थान पर कार्य-व्यापार नहीं होना चाहिए, जहाँ नाट्य-निर्दिष्ट समय में नाटक के पात्र यातायात करने में असमर्थ हो। अतः स्थान-संकलन के निर्वाहनार्थ नाटकीय कार्य-व्यापार एक नगर या एक ऐसे स्थल तक ही सीमित हो जाता था, जहाँ कार्यवश सभी आवश्यक पात्रों का समावेश हो जाता। इस संकलन का चरम आदर्श संभवत वहाँ उपस्थित होता था जब एक ही कमरे में राजा से लेकर ग़रीब तक का समावेश करवा दिया जाता।
अरस्तू ने अपने 'काव्य-शास्त्र' में स्थान-संकलन का दूरस्थ संकेत-मात्र किया है। सामान्यतः यह समझा जाता है कि स्थान-संकलन का सिद्धांत समय-संकलन से ही उद्भूत हुआ है।
कार्य-संकलन का अभिप्राय यह है कि नाटक में ऐसी किसी भी घटना का समावेश नहीं होना चाहिए जिसका नाटक की प्रमुख घटना से संबंध न हो। नाट्यकार का कर्त्तव्य है कि वह अपनी कृति को आदि, मध्य और अंत-समन्वित एक अखंड सृष्टि के रूप में प्रस्तुत करे। इस संबंध में लावेल का कहना है कि जिस तरह शरीर के एक अंग का दूसरे के साथ संबंध है, उसी तरह का पारस्परिक संयोजन और संबंध नाटक के विभिन्न भागों में होना चाहिए। नाटक का संस्थान ऐसा होना चाहिए जिसमें संश्लेषण की अनिवार्यता और समन्विति का पूर्ण निर्वाह हुआ हो। नाट्यकार को इस ओर बराबर अपनी दृष्टि रखनी चाहिए कि नाटक का ढाँचा निरा यांत्रिक न बन जाए जिसमें एक अंश दूसरे अंश के साथ यों ही, बिना किसी नियम के, अललटप्पू जोड़ दिया गया हो।
अरस्तू ने यद्यपि नाटक में कार्य-संकलन को ही अनिवार्यतः आवश्यक ठहराया था तथापि समय और स्थान-संकलन का अर्थ कुछ लोग भ्रमवश यह समझते हैं कि नाटक में केवल एक व्यक्ति का आख्यान रहना चाहिए किंतु सच तो यह है कि एक व्यक्ति के जीवन में ही ऐसी असंख्य घटनाएँ हो सकती हैं जिन सबका समुच्चय एक नाटकीय कथानक की सृष्टि नहीं कर सकता, इसी प्रकार समय के संकलन से भी कार्य-संकलन अपने आप नहीं हो जाता। अरस्तू की दृष्टि में होमर ने इस तथ्य को भली-भाँति हृदयंगम कर उसे कार्यान्वित किया था। इलियट और ओडीसी में उसने नायक की सब घटनाओं को न लेकर उन्हीं घटनाओं को लिया है जिनका मूल-घटना से संबंध है। जिस घटना की सत्ता से नाटक की मुख्य घटना पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, जिसका होना न होना बराबर है, नाटकीय कथानक का अभिन्न अंग वह नहीं मानी जा सकती। इतना ही नहीं ऐसी घटना के समावेग से कार्य-संकलन को भी क्षति पहुँचती है।
अरस्तू के मत से नाटक का विस्तार उतना अवश्य होना चाहिए, जितने के द्वारा कथानक का स्वाभाविक विकास दिखलाया जा सके। उसकी दृष्टि में कार्य संकलन मुख्यतः दो रूपों में संपन्न होना है—1. नाटकीय घटनाओं में कार्य-कारण-संबंध की स्थापना की गई हो। 2. सब घटनाएँ, किसी एक लक्ष्य की ओर उन्मुख हो।
होरेस ने रोम में अरस्तू के नाटकीय सिद्धांतों का प्रचार किया और फ़्रांस के शिष्टवादियों ने तीनों संकलनों की स्थापना को परमावश्यक ठहराया। उनके मतानुसार—
(क) नाटक में एक मात्र विषय कथानक रहेगा। यदि उसमें छोटी-छोटी घटनावली को संयोजित करने की आवश्यकता हो तो उसे इस प्रकार सन्निविष्ट करना उचित है कि वह मूल घटना की परिपोषक हो।
(ख) सारी घटनाओं का एक जगह संघटित होना आवश्यक है।
(ग) सारी घटनाओं का एक ही दिन में और एक कारण से होना उचित है।
यहाँ यह कहने की आवश्यकता नहीं कि इतने विधि-निषेधों को मानकर चलने वाला नाट्यकार सर्वदा स्वाभाविकता की रक्षा नहीं कर सकता। अँग्रेज़ी साहित्य में वेन जॉन्सन ने तीनों नाटकीय संकलनों का निर्वाह किया है। शेक्सपियर ने भी 'टेपेस्ट' तथा 'कॉमेडी ऑफ़ एरर्स' में संकलनों की रक्षा की है, किंतु अपने अन्य नाटकों में उसने समय और स्थान के ऐक्य की ओर कोई ध्यान नहीं दिया। ड्राइडन ने समय और स्थान-संकलन के सिद्धांतों की धज्जियाँ उड़ाई थीं। पीछे इब्सन की आँधी में ये सिद्धांत रूई की भाँति उड़ गए।
जहाँ तक संस्कृत नाट्याचार्यों का प्रश्न है, कुछ आलोचकों का आक्षेप है कि उनका ध्यान काल, स्थान और कार्य-संकलन की ओर उतना नहीं गया क्योंकि रस-निष्पत्ति ही उनका प्रमुख लक्ष्य रहा। यह तो सच है कि भरत के नाट्य-शास्त्र से लेकर परवर्ती अनेक लक्षण-ग्रंथों में रस को आत्मा और नाटक के इतिवृत्त को शरीर के रूप में स्वीकार किया गया है किंतु फिर भी यह स्वीकार नहीं किया जा सकता कि संस्कृत नाट्याचार्यों ने समय, स्थान और कार्य के ऐक्य पर दृष्टि नहीं रखी है। भरत ने अपने नाट्य-शास्त्र में 'अंक में काल-नियम' के अंतर्गत एक प्रकार से समय-संकलन पर ही अपने विचार प्रकट किए हैं। उन्हीं के शब्दों में—
एकदिवसप्रवृत्तं कार्यस्त्वंकोऽर्थबीजमधिकृत्य।
आवश्यककार्याणामविरोधेन प्रयोगेषु।
“एकदिवसप्रवृत्त' की व्याख्या करते हुए अभिनवगुप्त लिखते हैं—‘अथांकस्य प्रयोगकालपरिमाणमियदिति दर्शयति एकदिवसप्रवृत्तमित। अर्थात् एक अंक में जितने कार्य-व्यापार का प्रदर्शन करना हो, उसके लिए एक दिवस का समय निर्दिष्ट किया गया है। 'एक दिवस' से अभिनवगुप्त का तात्पर्य 15 मुहूर्त्त से है। दिन-रात के तीसवें हिस्से को 'मुहूर्त्त' की संज्ञा दी गई है। दिन समाप्त होने तक का पूरा काम यदि एक अंक में न आ सकता हो तो अंकच्छेद करके शेष काम प्रवेशकों द्वारा सूचित कर देना चाहिए।
दिवसावसानकार्य यद्यंके नोपपद्यते सर्वम्।
अंकच्छेदं कृत्वा प्रवेशकैस्तद्विधातव्यम्॥
प्रवेशकों द्वारा चूलिका, अंकावतार, अंकमुख, प्रवेशक और विष्कंभक का ग्रहण किया गया है। नाटक में कुछ स्थल ऐसे हैं जो रंगमंच पर प्रदर्शित किए जाते हैं, कुछ ऐसे होते हैं जिनकी सूचना प्रवेशक, विष्कंभक आदि द्वारा दे दी जाती है। ऐसे स्थलों को 'सूच्य' कहते हैं। भरत के 'नाट्य-शास्त्र' में सूच्य अंश के लिए भी एक वर्ष की अंतिम सीमा निर्धारित की गई है।
“अंकच्छेदं कुर्यान्मासकृतं वर्षसंचितं वापि।
तत्सर्वं कर्त्तव्यं वर्षादूर्ध्व न तु कदाचित्॥”
‘नाटकलक्षणरत्नकोशकार’ ने भी प्रकारांतर से यही बात कही है—
एकदिवसप्रवृतः कार्योंके सप्रयोगमधिकृत्य। आख्याने यद्वस्तु वक्तव्यं तदेकदिवसमालम्ब्यांके कर्तव्यम्। केचित्तु वासरार्द्धकतोह्यंक इति। केचिच्च एकरात्रिकृतमेकवासरकृतमंके वत्तव्यम्। यत्र तु कार्यवशात् कालभूयस्त्वं तदस्मिन्नंके प्रवेशकेन वक्तव्यम्। न तु वर्षादितिक्रांतं यदुच्यते वर्षादूर्ध्व न कदाचिदिति। तदेतद् बहुकालप्रणेयं नांके विधेयमिति।
अर्थात् एक दिन का काम ही एक अंक में दिखाना चाहिए। कथा में जो बातें दिखानी हैं, उनमें से एक-एक दिन की कथा एक-एक अंक में दिखानी चाहिए। एक आचार्य कहते हैं—अंक में आधे दिन की कथा दिखानी चाहिए, दूसरे आचार्य का कहना है कि एक रात-दिन की घटना एक अंक में कही जा सकती है। जहाँ आवश्यकतावश अधिक काल की घटनाओं का प्रदर्शन करना हो, वहाँ 'प्रवेशक' का आश्रय लेना चाहिए। किंतु एक वर्ष से ऊपर की घटना नहीं होनी चाहिए अर्थात् बहुत समय की घटना एक अंक में नहीं आनी चाहिए।
बहुत वर्षों की घटना यदि एक अंक में दिखलाई जाए तो उसमें अस्वाभाविकता आने का डर रहता है। स्पेन में इस तरह के नाटक लिखे गए हैं जिनमें प्रथम अंक में नायक का जन्म दिखलाया गया है और नाटक के अंत में नाटक वृद्ध पुरुष के रूप में प्रकट होता है। इस प्रकार के व्यतिक्रम को स्वाभाविक बनाने के लिए नाट्यकारों को सूच्य पद्धति का प्रयोग करना ही पड़ता है।
समय के ऐक्य की ओर ही नहीं, स्थानगत ऐक्य की ओर भी संस्कृत नाट्याचार्यों ने ध्यान दिया था। अंक में 'देश-नियम' का उल्लेख करते हुए नाट्यशास्त्रकार कहते हैं—
“य कश्चित्कार्यवशात् गच्छति पुरुष प्रकृष्टमध्वानम्।
तत्राप्यंकच्छेदः कर्त्तव्यः पूर्ववत्तज्जै:॥”
अर्थात् यदि कोई पुरुष कार्यवश बहुत दूर चला गया हो तब भी पूर्ववत् अंकच्छेद करना वांछनीय है। एक अंक में जिन दृश्यों का समावेश किया गया हो उनमें इतना अंतर न हो, इतनी दूरी उनके बीच में न हो कि नायक निर्दिष्ट समय में वहाँ पहुँच ही न सके। किंतु यदि नायक के पास पुष्पक विमान जैसा वायुयान हो तो फिर दूरी चाहे जितनी हो, वहाँ अंकच्छेद बिना भी काम चल सकता है।
‘आकाशयानकादिना सर्व युज्यते” द्वारा अभिनवगुप्त ने इसी तथ्य की ओर संकेत किया है।
यहाँ पर समय और स्थानगत ऐभ्य के पारस्परिक संबंध की यह स्थापना भी विशेषत: उल्लेखनीय है।
अभिनवगुप्त के उक्त साक्ष्य के होते कीथ की इस उक्ति को स्वीकार नहीं किया जा सकता कि संस्कृत-नाट्यकार समय और स्थान-संबंधी संकलनों के सिद्धांतों से अनभिज्ञ थे।
जहाँ तक कार्य की एकता का प्रश्न है, आरंभ, प्रयत्न, प्राप्त्याशा, नियताप्ति और फलागम, कार्य की ये पाँच अवस्थाएँ, बीज, बिंदु, पताका, प्रकरी और कार्य ये पाँच अर्थ-प्रकृतियाँ, तथा मुख, प्रतिमुख, गर्भ, अवमर्श और निर्वहरण—ये पाँच संधियाँ, इस तथ्य को स्पष्ट प्रमाणित करती हैं कि कार्य की एकता की ओर संस्कृतनाट्याचार्यों ने पूरी दृष्टि रखी थी। आरंभ, प्रयत्न आदि को लेकर कथानक के जो पाँच विभाग किए गए हैं, उनमें नायक (व्यक्ति) पर दृष्टि रखी गई है, बीज, बिंदु आदि को लेकर जो वर्गीकरण किया गया है, उसमें घटनाओं पर दृष्टि रखी गई है, यह वर्गीकरण वस्तु-परक कहा जाएगा। मुख, प्रतिमुख आदि संधियों को लेकर जो विभाजन किया गया है, उसमें नाटक के शरीर और उसके अवयवों की कल्पना सन्निहित है। अरस्तू ने जो दुखांत नाटक का वर्गीकरण किया है, वह केवल वस्तु-परक है; संस्कृत नाट्याचार्यों द्वारा किया हुआ कथानक का यह विविध वर्गीकरण अपेक्षया विशद एवं व्यापक है।
अंत में, निष्कर्ष के रूप में यह कहना आवश्यक है कि नाटक में कार्य का संकलन सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है, समय और स्थल-संकलन कार्य-संकलन के अंगभूत मात्र हैं। सच तो यह है कि प्रतिभा के विकास में जहाँ नियम बाधक सिद्ध होने लगते हैं, वहाँ वे त्याज्य हैं। नियमों की सार्थकता प्रगति की बाधकता में नहीं, उसकी साधक्ता में है। स्थल-संकलन और समय-संकलन का प्रयोग आजकल, सामान्यतः हिंदी साहित्य के नाटकों में भी, एकाकियों और कुछ आख्यायिकाओं को छोड़कर, अन्यत्र नहीं किया जा रहा है यद्यपि प्रसाद जी के 'ध्रुवस्वामिनी' नाटक में मेंरी दृष्टि में किसी प्रकार तीनों संकलनों का सुंदर निर्वाह हो गया है। बात को हमेशा स्मरण रखना चाहिए कि लक्ष्य-ग्रंथों के आधार पर लक्षण-ग्रंथों का निर्माण होता है किंतु युग-परिवर्तन के साथ-साथ प्रतिभाशाली लेखक जब पुराने नियमों का अतिक्रमण कर नई-नई रचनाएँ करने लगते हैं तब वे रचनाएँ ही नूतन लक्षण-ग्रंथों के लिए आधार बन जाती हैं।
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