रेल पर दोहे

यातायात के आधुनिक साधनों

में से एक रेलगाड़ी ने कालक्रम में मानव-जीवन और स्मृति को व्यापक रूप से प्रभावित किया है और इसकी अभिव्यक्ति कविताओं में भी होती रही है। जहाँ स्वयं जीवन को एक यात्रा के रूप में देखा जाता हो, वहाँ यात्रा का यह साधन नैसर्गिक रूप से कविता का साधन भी बन जाता है। छुक-छुक की आवाज़, गुज़रते स्टेशन, पीछे छूटता घर, पड़ाव, मंजिल आदि कई रूपकों में रेल काव्याभिव्यक्तियों को समृद्ध बनाती रही है। इस चयन में रेल-विषयक कविताओं का एक अनूठा संकलन प्रस्तुत किया गया है।

देखत-देखत रात-दिन, गुनि जन को नहिं मान।

रेल छाँड़ि अब चहत हैं, उड़न लोग असमान॥

सुधाकर द्विवेदी

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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