सत्संग पर दोहे
भक्तिधारा में संत-महात्माओं
की संगति और उनके साथ धार्मिक चर्चा को पर्याप्त महत्ता दी गई है। प्रस्तुत चयन में सत्संग विषयक भक्ति काव्य-रूपों को शामिल किया गया है।
भजन भलो भगवान को, और भजन सब धंध।
तन सरवर मन हँस है, केसो पूरन चँद॥
माला टोपी भेष नहीं, नहीं सोना शृंगार।
सदा भाव सतसंग है, जो कोई गहे करार॥
संत मुक्त के पौरिया, तिनसौं करिये प्यार।
कूंची उनकै हाथ है, सुन्दर खोलहिं द्वार॥
जे जन हरि सुमिरन बिमुख, तासूँ मुखहुँ न बोल।
राम रूप में जे पगे, तासूँ अंतर खोल॥
साध संग जग में बड़ो, जो करि जानै कोय।
आधो छिन सतसंग को, कलमष डारे खोय॥
जन सुन्दर सतसंग मैं, नीचहु होत उतंग।
परै क्षुद्र जल गंग मैं, उंहै होत पुनि गंग॥
सुन्दर या सतसंग की, महिमा कहिये कौन।
लोहा पारस कौं छुवै, कनक होत है रौन॥
संत समागम कीजिये, तजिये और उपाइ।
सुन्दर बहुते ऊबरे, संत संगति मैं आइ॥
दारिद सुरतरु ताप ससि, हरै सुरसरी पाप।
साधु समागम तिहु हरे, पाप दीनता ताप॥
पाँच क्लेश ब्यापै नहीं, चित न होय विक्षेप।
जो जगमग सतसंग मिले, तन मन सन निर्लेप॥
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परसुराम सतसंग सुख, और सकल दुख जान।
निर्वैरी निरमल सदा, सुमिरन सील पिछान॥
यह लक्षण अनुराग के, अनुरागी उर जान।
ताको करि सतसंग पुनि, अपनेहुँ उर आन॥
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