जयति जयति सर्वेश्वरी, जन रक्षक सुखदानि।
जय समर्थ अह्लादिनी, सक्ति सील गुन खानि॥
सिया अलिनि की को कहै, सुख सुहाग अनुराग।
विधि हरिहर लखि थकि रहे, जानि छोट निज भाग॥
दंपति प्रेम पयोधि में, जो दृग देत सुभाय।
सुधि बुधि सब बिसरत तहाँ, रहे सु विस्मै पाय॥
गलबहियाँ कब देखिहौं, इन नयमन सियराम।
कोटि चन्द्र छबि जगमगी, लज्जित कोटिन काम॥
हँस बीरी रघुबर लई, सिय मुख पंकज दीन।
सिया लीन कर कंज में, प्रीतम मुख धरि दीन॥
हिलि मिलि झूलत डोल दोउ, अलि हिय हरने लाल।
लसी युगल गल एक ही, सुसम कुसुम मय माल॥
महा मधुर रस धाम श्री, सीता नाम ललाम।
झलक सुमन भासत कबहुँ, होत जोत अभिराम॥
जैति सिया तड़िता बरण, मेघ बरण जय राम।
जै सिय रति मद नाशिनी, जै रति पति जित साम॥
दास दासि अरु सखि सखा, इनमें निज रुचि एक।
नातो करि सिय राम सों, सेवै भाव विवेक॥
हे सीते नृप नंदिनी, हे प्रीतम चितचोर।
नवल बधू की वीटिका, लीजे नवल किशोर॥
रघुबर प्यारी लाड़ली, लाड़लि प्यारे राम।
कनक भवन की कुंज में, बिहरत है सुखधाम॥
बिहरत गलबाहीं दिये, सिय रघुनन्दन भोर।
चहुँ दिशि ते घेरे फिरत, केकी भँवर चकोर॥
जानकीवल्लभ नाम अति, मधुर रसिक उर ऐन।
बसे हमेशे तोम तम, शमन करन चित्त चैन॥
राम चरन दुख मिटत है, ज्यों विरही अतिहीर।
राम बिरह सर हिय लगे, तन भरि कसकत पीर॥
राम चरन मदिरादि मद, रहत घरी दुइ जाम।
बिरह अनल उतरै नहीं, जब लगि मिलहिं न राम॥
नील पीत छबि सो परे, पहिरे बसन सुरंग।
जनु दंपति यह रूप ह्वै, परसत प्यारे अंग॥
नेह सरोवर कुँवर दोउ, रहे फूलि नव कंज।
अनुरागी अलि अलिन के, लपटे लोचन मंजु॥
इत कलँगी उत चन्द्रिका, कुंडल तरिवन कान।
सिय सिय बल्लभ मों सदा, बसो हिये बिच आन॥
जो भीजै रसराज रस, अरस अनेक बिहाय।
तिनको केवल जानकी, वल्लभ नाम सहाय॥
नाम गाम में रुचि सदा, यह नव लक्षण होइ।
सिय रघुनंदन मिलन को, अधिकारी लखु सोइ॥
पिय कुंडल तिय अलक सों, कर-कंकण सौ माल।
मन सो मन दृग दृगन सों, रहे उरझि दोउ लाल॥
यथा विषय परिनाम में, बिसर जात सुधि देह।
सुमिरत श्री सिय नाम गुन, कब इमि होय सनेह॥
यद्यपि दंपति परसपर, सदा प्रेम रस लीन।
रहे अपन पौ हारि कै, पै पिय अधिक अधीन॥
बसै अवध मिथिलाथवा, त्यागि सकल जिस आस।
मिलिहैं सिय रघुनंद मोहिं, अस करि दृढ़ विश्वास॥
सुंदर गलबहियाँ दिये, लालन लसे अनूप।
तन मन प्राण कपोल दृग, मिलत भये इक रूप॥
राम चरन रबिमनि श्रवत, निरषि बिरहिनी पीव।
अग्नि निरषि जिमि घृत द्रवत, राम रूप लखि जीव॥
कबहुँक सुंदर डोल महि, राजत युगल किशोर।
अद्भुत छवि बाढ़ी तहाँ, ठाढ़ी अलि चहुँ ओर॥
गौर श्याम बिचरत पये, मनहुँ किहैं इक देह।
सौहैं मन मोहैं ललन, कोहैं हरतिय नेह॥
विधि हरिहर जाकहँ जपत, रहत त्यागि सब काम।
सो रघुबर मन महँ सदा, सिय को सुमिरत नाम॥
होरी रास हिंडोलना, महलन अरु शिकार।
इन्ह लीलन की भावना, करे निज भावनुसार॥
दरस पिआस निरास सब, स्वांस-स्वांस प्रतिनाम।
रटे घटे पल पाव नहिं, कबहूँ बिरह ललाम॥
बंदौं सीताकांत सुख, रस शृंगार स्वरूप।
रसिकराज रसरंगमणि, सखा सुबंधु अनूप॥
श्रुति कुंडल भल दशन दुति, अरुण अधर छवि ऐन।
हित सौ हँसि बोलहि पिय, हिय हरने मृदु बैन॥
कब नैननि भरि देखिहौं, राम रूप प्रति अंग।
राम चरन जिमि दीप छबि, लखि मरि जात पतंग॥
बहुरि त्रिपाद विभूति ये, श्री, भू, लीला, धाम।
अवलोकहु रमनीक अति, अति विस्तरित ललाम॥
तैल धार सम एक रस, स्वांस-स्वांस प्रति नाम।
रटौं हटौं पथ असत से, बसौ रंग निज धाम॥
दरश परस में सुख बढ़े, बिनु दरशन दुख भूरि।
यह रुचिकै अनुभाव सखि, करै न रघुबर दूरि॥
ज्ञानी योगिन करत संग, ये तजि रसिकन संग।
सूख गर्त्त सेवन करत, शठ तजि पावन गंग॥
सुख निद्रा पौढ़े अरघ, नारी स्वर से होय।
प्रेम समाधि लगी मनौ, सखि जानत सुख सोय॥
जाति-पाँति कुल वेद पथ, सकल बिहाय अनेम।
निस-दिन पिय के कर बिकी, रुकी न प्रीतम प्रेम॥
जामे प्रीति लगाइये, लखि कछु तिही विपरीत।
जिय अभाव आवै नहीं, सो निष्ठा की रीति॥
कुसुमित भूषण नगन युत, भुज वल्लरी सुवास।
लालन बीच तमाल के, कंध पर कियो निवास॥
अंध नयन श्रुति बधिर वर, बानी मूक सुपाय।
याहू ते सत गुन हरष, कबहुँ नाम गुन गाय॥
सिय तेरे गोरे गरे, पोति जोति छवि झाय।
मनहुँ रँगीले लाल की, भुजा रही लपटाय॥
एक-एक आभा भरन, भुवन आभरन अंक।
चारेक दृग दरशन, महाराज होत नर रंक॥
श्याम बरण अंबरन को, सुकृत सराहत लाल।
छराहरा अंग राग भो, चाहत नैन बिसाल॥
बंदौं दूलह वेष दुति, सिय दुलहिनि युत राम।
गौरि श्याम रसरंगमणि, जन-मन पूरन काम॥
बंदौं सिंहासन लसे, दुलहिनि दूलह चारि।
पूजहिं अंब कदंब लखिं, रसरंगहु बलिहारि॥
जनक नंदनी नाम नित, हित हिय भरि जो लेत।
ताके हाथ अधीन ह्वै, लाल अपन पौ देत॥
रघुवर मन रंजन निपुण, गंजन मद रस मैन।
कंजन पर खंजन किधौं, अंजन अंजित नैन॥
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere