नश्वर पर अड़िल्ल
मानव शरीर की नश्वरता
धार्मिक-आध्यात्मिक चिंतन के मूल में रही है और काव्य ने भी इस चिंतन में हिस्सेदारी की है। भक्ति-काव्य में प्रमुखता से इसे टेक बना अराध्य के आश्रय का जतन किया गया है।
माया मोह के साथ सदा नर सोइया।
आख़िर ख़ाक निदान सत्त नहिं जोइया॥
बिना नाम नहिं मुक्ति अंग सब खोइया।
कह गुलाल सत, लोग ग़ाफ़िल सब रोइया॥