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दर-ब-दर

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शशांक

अन्य

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शशांक

दर-ब-दर

शशांक

कोलाहल के बीच मैं चुप था। जी हाँ, मुझे बहुत ज़ोरों से लगा कि अपने शहर में होता तो कम से कम सीटीनुमा आवाज़ तो ज़रूर निकालता। कुछ कसरत की कोशिश करता और स्टेशन के हर आने जाने वाले व्यक्ति को पहचानने के लिए मुड़-मुड़ कर देखता अपने शहर में तो हर आदमी पहचाना-पहचाना लगता है। मगर यहाँ इस खेल में किसे शामिल करता? तमतमाए चेहरों की हँसी ख़ुशी, दौड़ लगाते हुए बच्चे और गहरे विषाद में लटके हुए सिरों को दूर से बैठकर देखना एक खेल ही नहीं था। उसमें थोड़ा सा डर भी मिला हुआ था। आज पहली बार लग रहा है, किसी सीमेंट की बैंच पर बैठा कोई लड़का मेरे डर को भाँप रहा होगा। शायद अब खेल नहीं होगा सिर्फ़ डर होगा। और मजबूरन इसी डर से वह खेल रहा होगा।

सूटकेस और होल्डाल घसीट कर एक किनारे पर कर दिया। दूबेजी ने आने को लिखा था तो आएँगे ज़रूर ही। हो सकता है खोजते हुए रहे हों। मंजन कर लेता तो अच्छा था। परंतु इस चक्कर में खो जाऊँगा। पटरियों के उस पार बंबे के नीचे कुछ लोग नहा रहे हैं। शरीर मल-मल कर नहा रहे हैं। और फटे चीकट कपड़ों को फटकार कर पहन रहे हैं। तीन टाँगों के सहारे उचकता हुआ कुत्ता औरत की रोटी सूँघ रहा है। उसकी एक टाँग गाड़ी से कटी होगी और औरत स्टेशन के बाहर कहीं पागल हो गई होगी।

वे दूबेजी चले रहे हैं। नीली जींस की पैंट और कोटी पहने हैं। लगभग दौड़ते हुए आते हैं। इतनी भीड़भाड़ में क्या कह रहे हैं, कुछ सुनाई नहीं देता। केवल मुस्कुराहट पकड़ पाता हूँ। अरे मालिक! जै राम जी—मैंने दोनों हाथ उठा दिए।

हाय या हाई ऐसा कुछ दूबेजी ने कहा और अपने दोनों हाथ कूल्हे पर धर लिए। मेरे हाथ मय कोहनियों के झूलते हुए नीचे गए। अच्छा चलो। जल्दी चलें। फिर मुझे ऑफ़िस जाना है। स्कूटर ले लेते हैं। दूबेजी ने एक साँस में कहा और कुली को आवाज़ देने लगे। उन्होंने मुझे चुपचाप देखकर ही शायद यकायक अपने हाथ मेरे कंधे पर रख दिए फिर मुझे देखा या कहिए कि जायज़ा लिया और पूछा कि हो तो चाय पी ली जाए। मैं काफ़ी देर तक चुप रहा। वास्तव में दूबेजी की फुर्ती से मैं सुट्ट रह गया और काफ़ी देर तक इस फुर्ती में दूबेजी की पुरानी आदतें ढूँढ़ रहा था।

देखो यदि इस तरह सुस्तराम रहे तो दिल्ली तुम्हें खा जाएगी समझे मुन्ना। चाय पियोगे न?

ऐसा करते हैं कि घर पर ही लेंगे।

घर कहाँ यार! कमरा कहो। यहाँ चाय तो मैं बनाता नहीं। ख़ैर चलो वहीं कहीं पी लेंगे।

स्कूटर में बैठकर पहली बार दूबेजी ने घरेलू अंदाज़ में पूछा—और क्या हाल चाल हैं शहर के?

शहर माने माता पिता भाई बहिन

शहर माने प्रेमिका

शहर माने तालाब पेड़ पुल

शहर माने दोस्त

शहर माने सड़कें

मैं कैसे सारी बातें सूक्तियों में उन्हें बता सकता? कह दिया—शहर की तबियत दुरुस्त है। सूक्तियाँ कभी किसी का भला नहीं कर सकतीं। वे उनकी जिज्ञासाओं पर कील की तरह ठुक गई तो। दूबेजी फिर बतलाने लगे—यह कनॉट सर्कस है। यह पार्लियामेंट स्ट्रीट। यह अशोका होटल। कल से घूमेंगे, मुन्ना, आज तो तुम आराम करना।

मेरा ख़याल है, आज ही उनसे मैं मिल लेता?

वे जान गए कि मैं दिल्ली दर्शन के लिए नहीं आया हूँ। काम पर आया हूँ।

आज ही मिलोगे?

मिल लेते तो अच्छा था।

पहले अपन फ़ोन कर लेंगे।

चला ही जाता तो?

फ़ोन पर बात करते डर लगेगा क्या?

हाँ, डर को निस्संकोच होकर खोला।

तुम्हें किस बात का डर भाई। ठाठ से कहना तुम्हारे दामाद आए हैं।

गाड़ी भेजो फटाफट।

औल सैक्लेटली भेज देंगे तो फिल?

तो सेक्रेटरी को रख लेंगे और गाड़ी भेज देंगे। ठीक?

ठीक!

ठीक?

ठीक!!

दूबेजी की सहायता से मैं विभोर होता रहा। और अब तो मैं यह कहूँगा कि दूबेजी बड़े रायल आदमी हैं। स्टेशन पर उतरते ही मुझे लगा था कि सभी लोग किसी षड्यंत्र के तहत भागदौड़ कर रहे हैं। और इसमें से कोई कोई अंत में मेरा टेंटुआ दबा देगा। पर अब चैन है। दूबेजी जाने बूझे हैं, कोई डर नहीं।

तुम प्रेम-पत्र ले आए हो ना?

अब जब तक प्रेम-पत्र है मैं मर नहीं सकता। वही तो आया है, उसके पीछे-पीछे मैं दुमछल्ला हूँ।

तुम्हारी अच्छी पहचान है। मुझे तुमसे ईर्ष्या होती है।

अगर आप मेरी जगह होते तो आपकी फट जाती।

अब तो निश्चित ही है कि लग जाओगे।

हाँ, उम्मीद तो है।

तुम आई.ए.एस. में क्यों नहीं बैठते?

दूबेजी, पढ़ाई पूरी किए अभी एक साल हुआ है। फूला फूला फिरा जगत में, कुछ दिन तक। फ़र्स्ट डिवीज़न आई है। क्या बात है। वा भई मैं, वा। पिताजी भी कहते रहे आई.ए.एस. में बैठो। यदि यहीं मेरा अंतिम उद्देश्य होता दूबेजी तो मैं कम-से-कम अबतक सेल्सटैक्स इंस्पेक्टर तो हो ही गया होता। मैंने दो तीन इंटरव्यूज दिए। नहीं हुआ तब सबको दिव्य ज्ञान प्राप्त हुआ। पिताजी आई.ए.एस. से धीरे-धीरे उतरते हुए 225 की बेसिक पर गए। बाइस साल का लड़का जब तेइसवें में निरा नालायक़ और मूर्ख साबित हो जाए तो घर में ऐश बंद हो ही जाने चाहिए। सो अंडा और दूध बंद हुआ।

ख़ैर, अब तो नौकरी मिल ही जाएगी। इसके साथ ही काम्पीटीशन की तैयारी करना।

दूबेजी बात ऐसी है। नहीं। क्या कारण है कि आप यह नहीं कहते कि मुन्ना नौकरी लग जाएगी तो हॉकी की और अच्छी प्रैक्टिस करना। मन लगाकर लिखना-पढ़ना। अच्छी ज़िंदगी जीना।

यार मुन्ना, एक बार बड़ी पोस्ट पा जाओगे तो तुम्हारे बड़े-बड़े मार्क्सवादी मित्र तुम्हारी झंडी उठाएँगे। ख़ैर अभी तुम बच्चे हो मेरे साथ रहोगे तो व्यावहारिक बना दूँगा।

दूबेजी ने स्कूटर एक ओर मुड़वाकर रुकवा दी। हम दोनों ने मिलकर सामान उतारा। दूबेजी ने ड्राइवर को पैसे देते हुए कहा—मुन्ना तुम्हें मैं काम्पीटीशन में बैठाकर ही छोडूँगा।

इतनी ज़बरदस्त और ग़लत आत्मीयता के लिए मैंने, हूँ कहा और सामान ढोने का प्रयत्न किया। दूबेजी के साथ सामान ढोकर दूसरी मंज़िल पर आए। बीच सीढ़ियों पर रुककर उन्होंने फुसफुसाकर कहा कि क्षंसधजी से कहना कि छोटा भाई हूँ। और वैसे भी मेरे भाई की तरह हो। मैंने इस क़दर सिर हिलाया मानों चोरी करने जा रहे हों।

दरवाज़ा खुलने पर एक तगड़ी औरत को मैंने नमस्ते किया। दूबेजी कुछ बोले इससे पहले ही उन्होंने कहा—आपके भाई हैं? आओ जी आओ।

हम कृतज्ञ होते हुए अंदर आए। बहुत सारे बच्चे थे और कमरे में बू भरी हुई थी। दूबेजी ने अपने कमरे का ताला खोला। सामान ठेल कर अंदर किया। दूबेजी ने दरवाज़ा बंद कर लिया।

देखो अब तुम्हें यहाँ रहना है। इन्हें मूँ लगाने की ज़रूरत नहीं है। नहीं तो सारे बच्चे यहाँ जाएँगे। दिल्ली के लोग हरामी होते हैं। तुम्हें कब नंगा कर दे मालूम नहीं।

और आपको किसके लिए नियुक्त किया गया है? आप मुझे भर नंगा करना—मैं हँसा।

उन्होंने गर्व के साथ सूचना दी कि वे कभी दिल्ली के नहीं रहे। उन्होंने कहा कि छह महीने में यहाँ की नस पकड़ी जा सकती है। और एक बार नस पकड़ ली तो फिर लाखों का वारा-न्यारा हो जाए। दूबेजी कुछ और गुप्त सफलता के सूत्रों की जानकारी देते इसके पहले ही मुझे मुँह धोने की याद गई। मैंने ज़मीन पर होल्डाल बिछा लिया और बैठकर मंजन करने लगा। दो बिस्तरों और एक मेज़ से कमरा भरापूरा हो गया। एक वार्डरोब है जो दीवार में समाई हुई है। एक रस्सी एक कोने से दूसरे कोने तक तनी हुई है जिस पर कपड़े लटक रहे हैं। मेज़ के ऊपर दीवाल पर हाथ से बना ग्रीटिंग लगा हुआ है। ‘दादा को शुभ-कामनाओं सहित-कुन्नू, राजू, बंटू और विमला।’ एक पंक्ति और लिखी गई होगी। जिस पर नीली मोटी लकीर फेर दी गई है। सजावट के नाम पर यही एक चिप्पी है। लेकिन शायद यह सजावट हो। मेज़ पर कुछ किताबें हैं। नीचे प्लास्टिक की बाल्टी। बाक़ी सामान वार्डरोब में होगा। उसमें भी मैं अपने कपड़े रख लूँगा।

निबट लेने के बाद हम नीचे उतर आए। दूबेजी ने कमरे पर ताला लगा दिया था। और ऑफ़िस जाने की तैयारी में पोर्टफ़ोलियो ले लिया। मुझे कुछ अजीब सा लग रहा था। एक घर में रहकर अपने कमरे को जुदा रखना। नीचे आकर मैंने कहा तो वे बोले दोस्त, यह दिल्ली है। यहाँ चुरकट भावुक की तरह तुम रहे तो ज़रूर तुम्हारी नैय्या विजय चौक पर डूब जाएगी। अपना मतलब साधो बस। मैं उसे किराया देता हूँ कमरे के लिए। की भाई-भौजाई बनाने के लिए।

पास में ही होटल थी। लोगों ने हँस-हँसकर उनसे नमस्ते की। तनिक आवाज़ को रठ्ठ बनाकर होटल के मालिक से मेरा परिचय कराया गया। अब यहीं नाश्ता करना है, यही भोजन करना है। दूबेजी ने स्नेह के चलते मालिक को एक बोल मारी और मुझसे कहा कि—मुन्ना यह वैष्णव भोजनालय है। इसलिए लहसुन और प्याज़ का बंदोबस्त नहीं है। वैष्णव होना फ़ायदेमंद इसलिए है कि प्याज़ मँहगी है। पर बाहर जो तख़त पर अंडे उबाल रहा है। यहाँ ले आएगा। दाल मुफ़्त नहीं मिलेगी और सब्ज़ी की तरी सिर्फ़ एक बार मिलेगी। सारी व्यवस्था समझाने के बाद मठरी और चाय का नाश्ता किया। मुझे घर की याद आने लगी। घर यानी माँ। मठरी यानी माँ।

छूट गया भाई छूट गया

घर आँगन तो छूट गया

छूट गया भाई छूट गया

घर

आँगन

छूट गया

पुराने दिन बहुत ख़राब होते हैं। कॉलेज के दिनों के जुलूस, बंद मुट्ठियाँ, नारे, सन-सनाहट, ग़ुस्सा...पानी की तरह गदबदाता-मगर जुलूस रोक लेता हूँ। मक्कार आदमी की तरह हँसता हूँ क्योंकि दूबेजी एक नौकर से धौल-धप्प कर रहे हैं। दस या बारह के क़रीब का लड़का। मोटा हँसमुख।

मुन्ना अपने को ये खाता खिलाता है। विक्रम है। साला बदमाश है। पर काम अच्छा करता है।

मैंने उससे कहा—विक्रम अब मैं भी यहाँ खाया करूँगा।

ठीक है साब, अपनी तो यही नौकरी है। उसने अदाकारी में सिर झुकाया और पूछा, समोसे चलेंगे?

दूबेजी ने घड़ी देखी। कहा, नहीं चाहिए। फिर मेरी तरफ़ होकर बोले, चलो उठो मुझे जाना है। उन्होंने मुझे चाबी दे दी। बोले शाम को जल्दी जाऊँगा। आज तो तुम कमरे पर आराम करो। कल तुम्हारे साथ चले चलूँगा। फ़्रैचलीव हो जाएगी। वे पोर्टफ़ोलियो झुलाते हुए बस स्टॉप की ओर चलने लगे। मैं भी पीछे-पीछे चलने लगा तो उन्होंने मना कर दिया—जाओ मुन्ना, जाके आराम करो। फिर रूककर बोले तुम्हें मालूम है मुन्ना, साले जो दो-दो हज़ार पाते हैं, वो भी धक्का खाते खड़े रहते हैं। आप मालूम नहीं कर सकते कि कमाते कितना है। अच्छा तुमृ जाओ।

मैं समझ नहीं पाया कि आख़िरी बात के लिए वे रूक क्यों गए थे। आज्ञाकारी की तरह मैं कमरे पर लौट आया। दूसरे कमरे में बच्चे हल्ला कर रहे हैं। माँ खीज रही है। मैं दरवाज़ा बंद किए बैठा हूँ। ये कमरा। सिर्फ़ दूबेजी का कमरा। कितना अजीब है। छीना-झपटी और रोना गाना। होल्डाल से डब्बा निकाल कर गाजर की बर्फ़ी निकाल लेता हूँ। दरवाज़ा खोलकर कमरे से बाहर आता हूँ। बच्चों ने तो सारा सामान अस्त-व्यस्त कर दिया है। वे पाँच हैं। वे सब चुप होकर मुझे देखने लगते हैं। मैं बर्फ़ी उन्हें दे देता हूँ। वे हैरान होकर मुझे देखने लगते हैं। दिल्ली के बच्चे। दूबेजी, दिल्ली के बच्चे। उनकी माँ सिर से दुपट्टा सरका कर मुँह से लगा लेती है। शायद हँस रही है कहती है—ये ऐसे नहीं मानेंगे। अब तो और रोएँगे। गाजर की मिठाई खाई है कभी तुम लोगों ने, अब चुप होना।

चुप तो हैं—मैंने कहा।

अब हम बहुत कुछ कहते। मसलन

आप इन्हें स्कूल क्यों नहीं भेज देती?

अरेऽऽ कहाँऽऽ

कम से कम बड़े को?

अगले साल देखेंगे।

सिंघ साब जल्दी निकल जाते हैं।

एक जगह और थोड़ा काम करते हैं।

ज़माना बड़ा मँहगा है।

हं जी।

तीन में से एक दूबेजी को दे दिया तो घर भी छोटा होगा?

हाँऽऽ

चलो ये तो है कुछ पैसे जाते हैं।

हं जी।

आप यहीं की हैं?

नहीं जी।

छुट्टियों में गाँव जाती होंगी?

अरेऽऽ कहाँऽऽ

मँहगाई बहुत है।

हाँऽऽ

पूरा नहीं पड़ता।

हाँ।

हाँ।

हाँ।

इसी तरह से कुछ बातचीत होती। इसके पहले ही मैं कमरे में गया।

आदमी जब अकेला होता है इस पर भी अकेला नहीं होता। अपने आपसे लड़ता रहता है। कुछ सुझाता है। हँसता है। और कभी-कभी लड़ते-लड़ते उक्ताहट होती है। संशय या हार के दौरान। कभी लड़ते-लड़ते आयतन कम हो जाता है। किस चीज़ का। मुझे मालूम नहीं। परंतु कोई चीज़ सिकुड़ जाती है, यह तय है। इसको मैं कह देता हूँ कि कुछ लुप्प हो गया। शायद आप कुछ और कहते हों। कुछ भी कहें क्या फ़र्क़ पड़ता है।

बहुत बार, शुरू में ऐसा हुआ कि इसी लड़ाई के कारण मैं अपने को दूसरी से अलग कर लेता था। शानदार लड़ाई जो मेरे अंदर चल रही है वह दूसरों में कहा! बाद में, अनेक लत भंजन के बाद यह महसूस हुआ कि अकेला वीर मैं ही नहीं। कोरस में कई वीर हैं। अब आप यह कहिए कि ये तो लड़ाई का वो हिस्सा है जो महत्वाकांक्षा के निकट आता है।

बहुत ठीक, बहुत ठीक। यह निहायत ख़ुशी की बात है कि लड़ाई के उस हिस्से को हम, कम-अज़-कम पहचान तो रहे जो अंदरूनी मामला है। किंतु ये सिकुड़न है वो तनाव (कैसा वाहियात शब्द है) पैदा कर देती है जो लड़ाई के दूसरे हिस्से की भी रंगाई करता है।

मैं उक्ता गया।

सारे कमरे की चीज़ें क़रीने से लगा दीं। और फिर बिस्तर पर लेट गया। तकिए में से लिफ़ाफ़ा निकाला। श्रीमती का पत्र है—

अपना बच्चा है। भला है। अपने यहाँ लगा सको तो इस पर दया होगी। सब ठीक है।

श्रम की क़दर की जाती हो तो बाईस वर्ष थोड़े नहीं होते।

इसके बाद दया?

लुप्प्

लुप्प्

लुप्प् लुप्प्

लुप्प्

मुझे अचानक महसूस हुआ मैं दिल्ली में हूँ। मुझे लाल क़िला देखना चाहिए। मुझे कुतुब देखना चाहिए।

कैबरे, ज़ू, प्रधानमंत्री, अशोका, ओबेराय, कनॉट प्लेस

नहीं। कुछ भी नहीं। मैं यहाँ सिर्फ़ नौकरी करने आया हूँ। मेरे शहर में भी बहुत सी चीज़ें है। जिन्हें देखकर मैं ख़ुश होता था। छोटी-छोटी टोकरियाँ, गत्ता मिल का धुआँ।

पिछले साल से फिर कहीं नहीं निकला कभी कभार कोई मिल जाता तो कहता—कहो कुछ जमा?

नहीं

दूसरा, कहीं कुछ जमा?

यार, पी.एच.डी. कर रहा हूँ।

तीसरा, कहीं कुछ जमा?

यार, सोचता हूँ फॉरेन निकल जाऊँ।

चौथा मिले इससे पहले मैं घर में क़ैद रहने लगा। निर्वासन। घर का निर्वासन। दिल्ली का निर्वासन। समय का ज़िंदगी से निर्वासन। मैं तैयार होता हूँ। हजामत बनाकर धुले कपड़े पहनता हूँ। श्रीमती का पत्र जेब में रख लेता हूँ पत्र को निकाल कर चोर जेब में रख लेता हूँ।

लुप्प् लुप्प्

बस नं. 15

अब

अब नं. 11

आप सीधे चले जाइए। फिर दाएँ फिर दाएँ। लाल भवन। लिफ़्ट पकड़िए और ऊपर छठी मंज़िल।

मैं गया हूँ।

कार्यालय में घुसता चला जाता हूँ। सिर झुकाए लोग काग़ज़ों से जूझ रहे हैं। मैं किसी से पूछता हूँ तो पूछने के पहले ही सिर हिला देता है। फिर कोई उँगली की नोक पर बैठाकर एक चैंबर में लुढ़का देता है। हम उम्र चुस्त नौजवान से पूछ रहा हूँ। चोर जेब में मेरा हाथ थरथरा रहा है। वह कहता है मैनेजर साब अभी नहीं है। पाँच दिन बाद आएँगे। फिर आइएगा।

पाँच दिन और? पहले चिंता फिर ख़ुशी। परीक्षा भवन से बाहर निकल जाने जैसी ख़ुशी। रास्ते में पूछते-पूछते बस से लौट आया। भोजन करके कमरे पर गया। शाम तो हो रही है। अब दूबेजी को जाना चाहिए। वोट क्ल पर बहुत बड़ा लाल सूरज पत्थरों के भवन के पीछे था। पानी पर भवन, रंग और पूरी भव्यता हिलोर ले रही थी। मैंने तय किया कि नौकरी लगने पर सब कुछ देखूँगा। सब कुछ। नौकरी होने पर सब कुछ आसान हो जाता है क्या?

चार पाँच दिन।

शामें ही ऐसी है, जबकि लगता है कि दिल्ली में हूँ। नए शहर में हूँ। वरना सुबह होटल, लेटना दुपहर फिर शाम। कुछ किताबें साथ लाया था। परंतु वे वैसी की वैसी धरी रही। क्या पढूँ कुछ समझ नहीं आता। जो भी कुछ पढ़ लो किंतु यह निश्चित है कि काम नहीं आएगा। वे सब मूर्धन्य सारी पढ़ाई पर पानी फेर देंगे। फ्रायड की औरतें, पावलोव के कुत्ते, कोह के बंदर, बड़बड़ाहट में हँसता गाँधी। सब बेमानी हो गए अब जो है वह श्रीमंत का पत्र और एक नई दुनिया। या शायद दुनिया जिसमें पहली बार धँस रहा हूँ।

दूबेजी थके हारे शाम को लौटते हैं। पूछते हैं—कुछ पढ़ा?

मैं कहता हूँ, नहीं, और हँसता हूँ।

दिन भर पड़े-पड़े क्या करते हो?

सोता हूँ।

कहानियाँ ही पढ़ा करो।

श्रीमती का पत्र पाँच छे दफ़े पढ़ लेता हूँ।

दूबेजी कुछ नहीं कहते। नए कपड़े पहन कर तैयार होते हैं। योग जैसी दो चार चीज़ें निकालते हैं। फिर आइने में तरह-तरह से चेहरा देखते हैं। गाल फुलाकर। पिचकाकर। आँख के पपोटै खींचकर। दाँत निकालकर आईना देखते हुए मुझसे पूछते हैं—मुन्ना मेरी उम्र क्या लगती होगी?

मैं झूठ बोलता हूँ—3

नहीं यार! फिर से देखो। अपना चेहरा मेरे सामने कर देते हैं।

बिलकुल 3।

वे उमग जाते हैं—कितना मेंटेन करके रखा है मैंने। अब तो ख़ैर सेहत थोड़ी गिर गई नहीं तो कोई भी 17-28 से कम समझता।

हाँ। मैं कहूँगा ही।

यार धक्कम धक्के में मर गए। एक के बाद एक चार नौकरी। इधर से उधर। सैटिल ही नहीं हो पाए।

सैटिल यानी शादी?

शादी भी। क्यों हमारी इच्छा नहीं हो सकती क्या?

तो क्या? शादी कर लीजिए। भाभी को घर छोड़ आना।

मैं ही ख़ुद 4 साल से घर नहीं गया।

4 साल!

हाँ।

आपको याद नहीं आती?

नहीं। कुछ रुपया जुड़े तब घर जाएँ।

इसके बिना नहीं?

जाना कोई मतलब नहीं रखता। मेरे लिए उनके लिए।

ऐसा नहीं है।

तुम अभी बच्चे हो मुन्ना। धीरे-धीरे व्यावहारिक बनोगे।

आप अपनी उम्र का फ़ायदा उठा लेते हैं। मैं एकदम बच्चा नहीं हूँ। सचमुच आपको याद नहीं आती?

धीरे-धीरे भूल जाता हूँ। अच्छा उठो चलो।

हर बार वही कनॉट प्लेस!

पिछली बार जब मैं पेरिस में था तब मेपिल की पत्तियाँ इसी तरह सड़क किनारे छा जाती थीं। मुझे पेरिस की बेहद याद रही है!

मुन्ना मुझे न्यूयार्क की!

अच्छा चलो कोई बात नहीं। हम मिलकर पेरिस चलेंगे।

नहीं न्यूयार्क।

एग्री।

बहुत चमकीली रौशनियाँ। बहुत अमीर हँसियाँ। बहुत कोमल सरसराहटें। दूबेजी दो साफ़्टी ख़रीदते हैं।

वे कहते हैं—मुन्ना जब मैं बिलकुल अकेला होता हूँ। तो एक साफ़्टी ख़रीद लेता हूँ। और बीच भीड़ में खड़ा खाता हूँ। टकराते हुए लोगों से मन बहल जाता है।

अपने शहर की तरह यहाँ भी अपने मुहल्ले होंगे। वे सभी क्या इसी तरह से साफ़्टी खाएँगे?

दूबेजी बोलते नहीं। हम पार्क के चारों तरफ़ घूमते हैं। रीगल में पोस्टर देखते हैं। आती-जाती लड़कियों के कसे लिहोर लेते उरुज़, मुड़-मुड़ कर देखते हैं। इतने में लगता है रात हो रही है। दूबेजी हाथ पैर दुखने का बहाना करते हैं, फिर व्हिस्की ख़रीदते हैं। पार्क के कोने में जाकर गटकते हैं और कहते हैं। चायघर में बैठेंगे।

चायघर में बैठते ही दो-तीन दुआ सलाम वाले मित्र क़रीब जाते हैं। दूबेजी ज़ोर-ज़ोर से बतलाते है कि वे 'फ़लां हाऊस' से पार्टी लेकर रहे हैं। स्कॉच और तंदूरी मुर्ग़ा। फिर काफ़ी ऊँची-ऊँची बातें। थकने पर उठते हैं। आवाजाही कम हो गई है। हम बस अड्डे की ओर जाते हैं। ये कोई चीज़ गुनगुना रहे हैं। यकायक मुझसे पूछते हैं—और शहर के क्या हालचाल है?

शहर माने...

शहर माने...

शहर माने....

कोई पाठ हो इसके पहले ही बोलता हूँ—आप ही सुनाइए!

दूबेजी एक क़िस्सा चुनते हैं। प्रेमिका के बारे में। हम रुक कर एक छोटे-से होटल में भोजन करते हैं। दूबेजी का क़िस्सा जारी है। वे सुबकने लगते हैं और उन्हें बहुत सी बातें याद आती हैं। काश, मैं कोई सिलसिलेवार ज़िंदगी जीता। अब नहीं है कुछ नहीं है। मेरा कोई नहीं है। आगे पीछे। मैं किसी को भी मार डालूँगा। जेल चला जाऊँगा। मेहनत करने पर दो रोटी वहाँ भी मिल जाएगी।

क़मीज़ से नाक पोंछकर वे उठते हैं। मैं सरदारजी को पैसा देता हूँ।

वे दूबेजी को विनोदी ढंग से देखकर हँसते हैं।

कमरे पर आते ही वे बिस्तर पर लेट जाते हैं। फिर नाक बजने लगती है। मैं होल्डाल पर पसर जाता हूँ। बिजली बंद कर देता हूँ।

दहशत

एक साफ़ सुथरा अंत

बस इतना ही होगा?

नींद आती नहीं...

मैंने चिट पहुँचा दी। केयरऑव श्रीमंता। चेंबर के अंदर गहमागहमी है। जो चिट ले गई थीं, उन्होंने आकर कहा कि मीटिंग चल रही है। यहीं बैठिए। सोफ़े पर मैं बैठा रहा और डरता रहा। वे टाइपराइटर खटखटा रही थीं। मालूम नहीं क्यों सेक्रेटरी के नाम से हेलन की छवि याद आती है (स्त्री हेलन मुझे माफ़ करें)। मगर इस शालीन चेहरे को देखकर अच्छा लगता है। अपना डर, कनखियों से देखकर कम कर रहा हूँ।

अचानक दरवाज़ा भड़भड़ा कर खुलता है। एक सज्जन विलाप करते हुए दोनों कमरों के बीचों-बीच पसर गए हैं। वे अत्यंत करूणा के साथ रो रहे हैं। गले की टाई ढीली हो गई है। कुछ लोग अंदर है। कुछ लोग बाहर से जमा होते जा रहे हैं। मैं भी हड़बड़ाहट में खड़ा हो गया हूँ। सब जस के तस खड़े हैं। वे रो रहे हैं—मुझे मैनेजर साब ने मारा। और इसके बाद ही कहते हैं—मेरी नौकरी चली जाएगी। वे ज़ोरों से रोते हैं। बार-बार यही शब्द। मैं समझ नहीं पाता वे सम्मान के लिए रो रहे हैं या नौकरी के लिए।

लुप्प् लुप्प्

लुप्प्

सब पत्थर की तरह जड़ हैं। अंत में मैनेजर कहते हैं—इसे पानी पिलाओ और आप लोग अपना-अपना काम करिए।

लंबी-चौड़ी मेज़ के पीछे मैनेजर ने हाथ हिलाकर आदेश दिया। कर्मचारीगण घिसटते हुए कुर्सियों की तरफ़ चले जाते हैं। दो व्यक्ति उन्हें उठाकर चल दिए हैं। वे लिफ़्ट से नीचे उतर जाएँगे। दस मिनिट में सुनसान हो गया।

सायं सायं लुप्प् लुप्प्

जाइए—सेक्रेटरी ने कहा।

मैं चोर जेब से पत्र निकाल लेता हूँ। उन्होंने पत्र पढ़ा और स्नेह से मुझे देखा।

पूछा—घर में सब ठीक है उनके?

जी।

उनके रिश्ते में हो?

जी नहीं।

फिर?

घरेलू पहचान है।

ठीक है। उन्होंने एक फ़ार्म निकाला और लिख दिया, जिसका मतलब यह कि ले लिया जाए।

मैं बाहर आकर फ़ार्म भरने लगा। उन्होंने यह भी नहीं पूछा, मेरी योग्यता क्या है? मेरी रुचि किसमें है?

लिखते हुए ऐसा लगा मानों मुर्दा अंगों का प्रदर्शन कर रहा हूँ।

रुचि और विशेष योग्यता के खाने में एक लंबी लकीर खींच दी।

कंपनी की शर्तों के नीचे, जो मेरी ओर से छपी थी, उसके नीचे हस्ताक्षर घसीटे। लुप्प-लुप्प। फ़ार्म जमा किया। कल से यहाँ आना है। बाहर आया तो देखा, वह अपना भारी चेहरा लिए, बाँहों में बैग दबाए प्रतीक्षा कर रहा है। टाई यथास्थान है। मैं उससे नज़रें बचाता निकल गया। (हालाँकि मुझे जानता थोड़ी)।

कोई एक निर्धारित कुर्सी। फ़ाइलें। पानी, चाय, लंच। घंटे, दिन, महीने।

लुप्प् लुप्प्

धड़ाम ऊँ हा हा

मारा मारा मारा

नौकरी नौकरी नौकरी प्रतीक्षा

लुप्प् लुप्प्

दूबेजी हँसते हैं। दूबेजी रायल आदमी हैं। दूबेजी कहते हैं, व्यावहारिक हैं। दूबेजी सुबह हँसते हैं, रात को रोते हैं। दूबेजी कहते हैं, अच्छा अब छोड़ो। चलो कनॉट तक हो आएँ। मैं मना करता हूँ। मुझे कनॉट से दहशत होती है। वे कंइयाँ में लेने लगते हैं। चलो चलो। यू आर यंग चैप। वे समझते हैं मैं थक गया हूँ।

हम वही सड़कें पार करते हैं। उसी घास को रौंदते हैं। उसी मार्के की शराब वे पीते हैं।

लौटते हैं तो कार्यक्रम बनता है एम.पी. कैंटीन में खाया जाए। बस बदल कर जाते हैं।

कैंटीन में साफ़ सुथरे कपड़े पहने विक्रम स्वागत करता है।

अबे तू यहाँ?

हौ।

कैसे?

वो साला समझता है कि चौबीसों घंटों के लिए ख़रीद लिया। अपने शौक़ के कुछ करो तो चिढ़ जाता है।

दारू कब से पीने लगा।

दारू नहीं साब कपड़े, सिनेमा।

अच्छा अच्छा

साब मेहनत करेंगे तो अपने लिए ना।

अच्छा खाना लाओ।

दूबेजी बतला रहे हैं, जब नौजवान थे तब एक लड़के की कितनी पिटाई की थी। वैसे अब भी किसी को पछाड़ सकते हैं।

भोजन करते मैंने कहा—मैं दिल्ली छोड़ना चाहता हूँ। हाँ मेरे कानों ने भी सुना।

घूर कर उन्होंने मुझे देखा, फिर कहा—तुम्हारी फ़ैमिली 'बै' ग्राउंड है। कर सकते हो। अरे मेरे पास जायदाद होती तो मैं ज़रूर आई.ए.एस. में जाता। वे रुआँसे हो गए। उन्होंने मुझसे कहा—तुम्हें दिल्ली से क़तई नहीं डरना चाहिए। यहाँ तो बस छह महीने....

दिल्ली से मैं डरा नहीं हूँ। शहर किसी को डराता नहीं है। मैंने फिर कहा—मैं दिल्ली छोड़ दूँगा।

शायद, उन्होंने सुना नहीं।

वे ग्लास में ही हाथ धोकर क़मीज़ से पोंछने में व्यस्त थे।

स्रोत :
  • पुस्तक : श्रेष्ठ हिन्दी कहानियाँ (1980-1990) (पृष्ठ 91)
  • संपादक : लीलाधार मंडलोई
  • रचनाकार : शशांक
  • प्रकाशन : पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस प्रा. लिमिटेड

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