पुराना पेड़ : नया वसंत

purana peD ha naya vasant

ठाकुरप्रसाद सिंह

ठाकुरप्रसाद सिंह

पुराना पेड़ : नया वसंत

ठाकुरप्रसाद सिंह

श्री माखनलाल चतुर्वेदी के संबंध में सहज श्रद्धावश लिखने का निश्चय काफ़ी पहले किया था लेकिन जब लिखने की बारी आई और मैंने उनके विषय में कुछ सोचना-विचारना शुरू किया तो लगा कि सच पूछिए तो सीधी आँखो से मैंने कभी उन्हें देखा भी नहीं है। जिने कभी देखा नहीं, कभी जिस के नज़दीक बैठा नहीं, जिस के साथ या जिस के युग के साथ कभी जिया नहीं, उस के विषय में कुछ लिखूँ तो दुस्साहस ही होगा, वैसा ही दुस्साहस जैसा बहुत से लोग बिना पुस्तक पढ़े आलोचना लिख देने के सिलसिले में कर दिया करते हैं। पहले उत्साह में मैं श्रीकांत जी को लिख दिया था कि पूज्य दादा पर कुछ लिखना चाहता हूँ लेकिन जब सचमुच वे मुझ से लेख लेने के लिए कटिबद्ध हो गए तो मेरे होश उड़ गए। मैं पीछे हटता गया, इस आशा से कि वे एक दिन निराश हो कर मुझे से लेख माँगना छोड़ देंगे और जैसे हिंदी साहित्य के अधिकांश संपादक मेरी चुप्पी से निराश हो कर निश्चिंत हो गए हैं, वैसे ही जोशी जी भी हो जाएँगे। लेकिन जाने क्या बात है, पहले तो वे ख़ुद तकाज़े करते थे अब, पंडित कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर' से भी पत्र भिजवाने लगे। प्रभाकर जी निवेदन तो करते नहीं, सीधे आदेश देते हैं और अब आदेश एक से दो, दो से चार होते जा रहे हैं, इसलिए घबराहट में माखनलाल जी के विषय में सोचने के लिए बाध्य होना पड़ रहा है।

मेरी हालत, सच पूछिए तो, उस छोटे बच्चे की-सी हो गई है जिसे लड़कपन से ही झूठ बोलने की आदत पड़ गई हो और वह लंबी-चौड़ी कहानियाँ सुनाकर साथियों पर अपनी छाप छोड़ने की ख़तरनाक आदत में पड़ गया हो। एक दिन कभी ऐसा भी आता है जब एक झूठ को सच सिद्ध करने के लिए उसे बार-बार झूठ बोलना पड़ता है और तब भी आस-पास वाले यह ताड़ लेते हैं कि जो-कुछ यह कह रहा है, झूठ ही कह रहा है। मेरा ख़याल है कि श्रीकांतजी और प्रभाकर जी दोनों ही इस षड्यंत्र में एक हो गए हैं और मेरी इस डीग मारने की आदत का निबटारा ही कर देने पर आमादा हैं। मैं बिल्कुल घिर गया हूँ क्योंकि मैंने कभी डींग मारी थी कि मैं माखनलाल जी पर जितना जानता हूँ कोई नहीं जानता, इसलिए मुझ से वे कहलवा लेना चाहते हैं कि मैं लोगों से साफ़-साफ़ यह कह दूँ कि माखनलाल जी को जानना तो दूर की बात है, मैंने उन्हें खुली आँखों से कभी देखा भी नहीं। मेरे सामने सिवा इस झूठ को स्वीकार लेने के और कोई चारा नहीं है। वे चाहते हैं कि खुली अदालत में मैं यह स्वीकार करूँ कि मैंने माखनलालजी को आज तक अपनी आँखों से कभी देखा ही नहीं।

लेकिन अपनी आँखों से देखने का मतलब यह नहीं है कि मैंने उन्हें एकदम नहीं देखा है। मैंने उन्हें देखा है अवश्य लेकिन अपनी बग़ल में बैठे हुए एक अपरिचित श्रोता से आँखें ले कर उस की आँखों से देखा है और जी भर कर देखा है। कैसे, यह अब बताना ही होगा क्योंकि बिना बताए निकल भागने का कोई रास्ता सूझ नहीं रहा है। बात इस प्रकार है। 1937-38 में अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन के बनारस अधिवेशन के समय मैं किसी प्रकार चोरी से पंडाल में पहुँच सकने में समर्थ हो गया। एकदम स्कूल का विद्यार्थी था और नागरी-प्रचारिणी सभा के घेरे को तोड़ कर भीतर जाने को और साहित्यकारों को देखने की आकांक्षा जब हुई तो सिवा इसके कि चहार दीवारी लाँघ जाऊँ और फाटक के भीतर जो भीड़ थी उस से रास्ता निकाल लूँ, और कोई अच्छा तरीक़ा मेरी समझ में उस समय नहीं सकता था। आज इस उम्र में यह देखकर हैरानी थोड़ी बढ़ जाती है कि जो तरीक़ा मैंने बचपन में साहित्य में घुसने का अपनाया था वही तरीक़ा अब बहुत-से ऐसे लोग इख़्तियार कर रहे हैं जिन की काफ़ी उम्र हो गई है और यह तय है कि उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए। बहरहाल मैं कुल जमा सातवीं कक्षा का विद्यार्थी था और मुझे हक़ हासिल था कि मैं नागरी प्रचारिणी सभा के पीछे की चहार-दीवारी लाँघ जाऊँ और मंच पर बैठे साहित्यकारों को देखें और मैंने यह किया भी। भीतर जाकर देखने पर लगा कि सारी मेहनत बेकार हो गई है। मैं जहाँ खड़ा हूँ वहाँ से मंच काफ़ी दूर पड़ता है और वहाँ विराजमान साहित्यकारों—का समूह तैल-चित्र की तरह लिपा-पुता दिखलाई पड़ता है। आवाज़ तो सुन पड़ती है लेकिन यह नहीं पता लगता कि उतने सब लोगों में से बोल कौन रहा है। असफलता की खीझ मेरे चेहरे पर उभर आती है लेकिन तभी मेरी बग़ल में बैठे एक सज्जन ने मेरी परेशानी देखकर एक विचित्र-सी मशीन मेरे हाथ में दे दी और मुस्कुरा कर कहा, दिक़्क़त होती हो तो इससे देखिए! वह शायद दूरबीन थी और ज्यों ही मैंने उसे आँख के आगे रखा, सारा दृश्य ही बदल गया। ऐसा लगा जैसे सारे का सारा मंच ही मेरे पास गया है और जो साहित्यकार भाषण दे रहे हैं वे ठीक मेरे सामने बैठे हुए श्रोताओं—के ऊपर खड़े ओजस्वी वाणी में धाराप्रवाह कुछ बोल रहे हैं। दूरबीन ऐसी थी कि उस में सामने का सारे का सारा दृश्य कई रंगों में दिखलाई पड़ता था—इसलिए खद्दर की सादी वेश-भूषा मे खड़ा वह व्यक्ति ऐसे लगा कि कई रंगों के वृत्त उसे घेरे हुए हैं। वे वृत्त दूरबीन के फ़ोकस के घटने-बढ़ने के साथ घटते-बढ़ते जाते थे। सामान्य क़द के वे मेरे सम्मुख आकार में भी काफ़ी बड़े लगते थे जैसे वे स्वयं हो, उन का विराट् रूप हो।

मेरी बग़ल में बैठे सज्जन मेरे कान में फुसफुसाए, माखनलाल जी हैं, 'कर्मवीर' के संपादक। मैं जैसे धक-से रह गया। ज़रा तेज़ी और भाव-विभोर स्वर में मैं कह पड़ा, 'कोकिल बोलो तो' के कवि? वे मुस्कुराए जैसे मेरी जानकारी से ख़ुश हुए हो।

तब तक श्री माखनलाल जी के वक्तव्य का संदर्भ भी मेरी पकड़ में चुका था। मैंने उत्साह से उन से कहा कि माखनलाल जो इस समय 'साहित्य-देवता' के संबंध में अपना वक्तव्य दे रहे हैं।

तभी आवेग से भरी ध्वनि और तेज़ हो गई और ऐसा लगा जैसे माखनलाल जी अपना वक्तव्य समाप्त करने जा रहे हैं 'साहित्यकार को लेखनी शांति के समय वशी का कार्य करती है, क्रांति के समय उसे युद्ध के नगाड़े को गुंजित करने का कार्य भी करना होगा। चारों तरफ़ पूरे पंडाल में सन्नाटा छा गया था और सभी श्रोताओं के ऊपर से तरल अग्नि को तरह चतुर्वेदी जी के विचार कई मिनिटों तक प्रवाहित होते रहे। मुझे ऐसा लगा कि जब आँखों के आगे दूरबीन लगाने की कोई आवश्यकता नहीं रही। अब चाहे आँखें खुली रखी जाएँ या मुँदी, माखनलाल जी का चित्र एक क्षण भी आँखा से ओझल होने वाला नहीं।

मैंने उस के बाद माखनलाल जी को कभी नहीं देखा इसलिए मेरे मानस-पटल पर उन का जो स्वरूप तब अंकित हो गया था वह आज भी जैसा का तैसा बना हुआ है। इधर वर्षों से सुन रहा हूँ, वे अस्वस्थ होते जा रहे हैं, चलने-फिरने में असमर्थ हो गए हैं और पिछले वर्ष जब उन्हें सम्मानित करने के लिए प्रदेश के मुख्य मंत्री तथा अन्य साहित्यकार खंडवा पहुँचे, वे दूसरों द्वारा उठाकर मंच पर लाए गए। काल अपना कार्य कर रहा है पर मेरे मन पर बचपन में अंकित हो गए उस सतरंगे विराट्-पुरुष पर काल की लहरों का कोई असर आज भी नहीं पड़ा है। भविष्य में भी नहीं पड़ेगा, यह बात इसलिए नहीं कह रहा हूँ कि मैंने उन्हें अत्यंत क्षीण-अस्वस्थ रूप में नहीं देखा है या उन्हें इस रूप में इसलिए नहीं देखना चाहता कि मेरा पुराना चित्र बिगड़ जाए बल्कि इसलिए कह रहा हूँ कि माखनलाल जी का जो स्वरूप उन को लेखनी से पिछले वर्षों उभरा है वह बचपन के उस विराट संतरगी आकृति से कहीं अधिक विराट्, कहीं अधिक रंगीला है। अपने छोटे से साहित्यिक जीवन में बहुत से वयोवृद्ध साहित्यकारों के साथ रहा हूँ, अत्यंत नज़दीक से देखा है बहुतों का और अधिकांश के प्रति सह्ज करुणा मन में उभर आई है—इसलिए कि वे चुक गए हैं। वे पूज्य है वे आराध्य है, पर प्रेरणा का स्रोत उनका सूख गया है। एक-एक कर मेरे रास्ते के ये छायाभ वृक्ष टूटते-सूखते-गिरते गए हैं लेकिन इस सारी भीड़-भाड़ में एक आवाज़ ऐसी भी रही है जो जब धीमी होती है तब तो किसी वृद्ध की लगती है लेकिन ज्यों ही तेज़ होती है तो ऐसा लगता है जैसे कोई बच्चा चीख़ रहा है; ऐसा बच्चा जिसने अभी-अभी जन्म लिया है और जिसे दुनिया इतनी ताज़ी, इतनी रंगीन, इतनी नई लग रही है कि वह चीख़ने के लिए बाध्य हो गया है। जैसे चीख़ का कोई तुक नहीं होता, चीख़ का कोई अर्थ नहीं होता वैसे ही वृद्ध पुरुष की अत्यंत आवेश में लिखी गई पंक्तियाँ अकसर आगे पीछे की पंक्तियों की-सी बे-मेल लगती हैं, उन का कोई सीधा अर्थ नहीं होता। जब उन का कोई अर्थ ही नहीं होता तो वे अर्थ ध्वनियों से आगे बढ़ कर संकेत-ध्वनियों में प्रवेश कर जाते हैं, ऐसी संकेत ध्वनियाँ जो केवल देवता दे सकते हैं या केवल बच्चे। मैं जिस बूढ़ी आवाज़ की चर्चा कर रहा हूँ वह एक-साथ बूढ़े और बच्चे दोनों की मिली-जुली आवाज़ है। उसे ध्यान से सुनना पड़ता है क्योंकि पता नहीं कब वह बूढ़े की आवाज़ बच्चे की आवाज़ में बदल जाए और इस के पहले कि आप सुख से झूम उठें और रह जाए बाद में बचा एक पछतावा—उसे सुन सकने का, उसे अपनी बग़ल से अनजाने में निकल जाने का, अंतरिक्ष मे रखी जाने का।

वह जिस की आवाज़ थी उस का नाम है माखनलाल चतुर्वेदी। उन की लगभग हर कविता इन्हीं गुणों से जगमग है और जब मैं उन की कोई भी नवीन रचना पढ़ता या सुनता हूँ तो प्रयत्न करके अपने भीतर के उसी आदिम संस्कार को जाग्रत रखता हूँ जो संकेतों को केवल संकेतों को पकड़ता है। दुनिया को सार्थक शब्दावली जिस के लिए व्यर्थ होती है। मैं सोचता हूँ कि जब तक माखनलाल जी की कविताओं में कहीं-कहीं झलक गए इन संकेतों को पकड़ने और उन के विशिष्ट अर्थों को समझ कर झंकृत होने की शक्ति मेरे भीतर बची हुई है तब तक मैं सारे विरोधों के बीच भी जीवित यंत्र बना रह सकने की अपनी हैसियत बनाए हुए हूँ। माखनलाल जी पिछले वर्षों में तेज़ी से कमज़ोर होते गए हैं लेकिन उतनी ही तेज़ी से वे नए भी होते गए है जैसे गाँव के किनारे कोई पुराना पेड़ हर वसंत में कहीं-न-कहीं से कुछ नए पत्ते, कुछ नई कोंपलें ऋतुराज के अभिवादन के लिए अपनी बूढ़ी जर्जर काँपती हथेलियों पर उठाए और कहे, इस बार के वसंत को मेरी यह भेंट स्वीकार हो!

74 हों या 76, एक भी वसंत माखनलाल जी की अभ्यर्थना के बिना नहीं गया है। कभी सिर भेंट करने की ललकार आई थी तो वे आगे बढ़ने वाली भीड़ में सब से आगे दिखलाई पड़े लेकिन स्वतंत्रता के बाद सिरों पर ताज लेने के लिए उतावली भीड़ में खोजा गया तो वे कहीं दिखे नहीं। पूरी ज़िंदगी भर होठों पर रख कर बजाई जाने वाली बाँसुरी से निर्मम काल-देवता ने नगाड़े पीटने का काम लिया और यह तय था कि इस से बाँसुरी खंड-खंड हो जाती। बाँसुरी खंड-खंड हो भी गई लेकिन उस ने कभी किसी के होंठ का स्पर्श नहीं किया—कभी यह शिकायत नहीं की कि उसे प्रेम-गीतों का माध्यम नहीं बनाया गया। यह सब कुछ हुआ, वर्षों तक प्रवृत्ति और प्रकृति के विरुद्ध तूफ़ान के बीच एक क्रांतिकारी और सत्याग्रही की ज़िंदगी बिताने के बाद भी बाँसुरी के भीतर की बाँसुरी मेरी नहीं। जब भी ज़रा-सा अवसर मिला, मन से या बे-मन से उसे किसी ने एक क्षण के लिए भी होंठो पर धरा तो वह वैसे ही पिघल उठी। मैंने अपनी आँखों के सामने कितने ही लोगों को अपनी जाति, अपनी प्रकृति, अपना धर्म बदलते देखा है, कभी लाचारी से, कभी समझौते के चक्कर में, कभी इसके या उसके मोह में। लेकिन इस भीड़ में ऐसा भी आदमी है जिसे कबीर के शब्दो में 'सतगुरु ने ऐसे जतन कर के ओढ़ा है' कि इतनी लंबी उम्र तक प्रतीक्षा के बाद भी जब वह अपने प्रिय के पास गया तो उसे यह शिकायत नहीं होगी कि माखनलाल जी ने अपने व्यक्तित्व की चादर ओढ़कर मैली कर दी है। साफ़ धुली खादी की एक चादर जैसे साफ़ धुला अमलिन व्यक्तित्व।

यदि संघर्ष होता तो माखनलाल जी एक अद्भुत प्रेम-गीतकार होते। यदि जातियों धर्मों का द्वेष विष की तरह बनारस की गलियों में व्याप्त होता तो कबीर केवल एक गृहस्थ होते, चादर बुनने वाले गृहस्थ और अंततः वे अपने भीतर की यात्रा पर इतनी दूर निकल जाते कि जहाँ से उन्हें लौटा सकना असंभव होता। दुख इसी बात का है कि दो अंतर्मुखी व्यक्तित्व वाले कवि बाहर की मार से उत्तेजित हो कर युद्ध क्षेत्र में आने के लिए बाध्य हो गए और जब उन्होंने अन्याय के प्रतिरोध के लिए तलवार उठा ली तो वे उसे तब तक चलाने के लिए प्रतिबद्ध हो गए जब तक अन्याय समाप्त हो जाएँ। दोनों ही तलवारें अपने म्यान में नहीं लौटी।

माखनलाल जी और लंबी उम्र पाएँ लेकिन मैं इतना स्वार्थी हूँ कि चाहे वे जितनी लंबी उम्र के हों, वे हर वसंत में अपना अर्घ्य दक्षिण की मलयानिल को दें, इसलिए कि उत्तर में गंगा-यमुना की वादियों में बसने वाले हिंदी-प्रदेश के नगरों की गलियाँ मलयानिल के झोंके से नया जीवन बराबर पाती रहें।

चारों ओर आँख उठा कर देखता हूँ और व्याप्त सन्नाटे से जी उचाट हो जाता है। तभी याद आती है चंदन-वन से मेरे घर के रास्ते पर खड़े उस बूढ़े ठूठ हो गए पेड़ की जिस की सब से ऊपर की सूखी डाल पर इस बार भी कोंपलें फूटी हैं। जब कोंपलें फूट गई हैं तो वसंत भी दूर नहीं होगा।

स्रोत :
  • पुस्तक : ज्ञानोदय (पृष्ठ 622)
  • संपादक : लक्ष्मीचंद्र जैन
  • रचनाकार : ठाकुरप्रसाद सिंह
  • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
  • संस्करण : 1967
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

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