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सुद्धि बुद्धि सब गई खोय री

suddhi buddhi sab gai khoy ri

चरनदास

अन्य

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चरनदास

सुद्धि बुद्धि सब गई खोय री

चरनदास

और अधिकचरनदास

    सुद्धि-बुद्धि सब गई खोय री मैं इस्क दिवानी।

    तलफ़त हूँ दिन-रैन ज्यों मछली बिन पानी॥

    बिन देखे मोहिं कल परत है देखत आँख सिरानी।

    सुधि आये हिय में दव लागै नैनन बरखत पानी॥

    जैसे चकोर रटत चंदा को जैसे पपिहा स्वाती।

    ऐसे हम तलफ़त पिय दरसन बिरह बिथा यहि भाँती॥

    जब ते मीत बिछोहा हूवा तब ते कछु सुहानी।

    अंग-अंग अकुलात सखी री रोम-रोम मुरझानी॥

    बिन मनमोहन भवन अँधेरी भरि भरि आवै छाती।

    चरनदास सुकदेव मिलावो नैन भये मोहिं घाती॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : हिंदी के जनपद संत (पृष्ठ 170)
    • रचनाकार : चरनदास
    • प्रकाशन : मोेतीलाल बनारसी, दिल्ली
    • संस्करण : 1963

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