पतिव्रता जयिनी मार्क्स

patiwrata jayini marx

बनारसीदास चतुर्वेदी

बनारसीदास चतुर्वेदी

पतिव्रता जयिनी मार्क्स

बनारसीदास चतुर्वेदी

और अधिकबनारसीदास चतुर्वेदी

    “बहन, यह ख़याल मत करना कि इन छोटे-छोटे कष्टों के कारण मैं हिम्मत हार बैठी हूँ। मुझे यह अच्छी तरह मालूम है कि मैं अकेली ही तकलीफ़ में नहीं हूँ। दुनिया में लाखों आदमी मुझसे कहीं अधिक कष्ट पा रहे हैं; बल्कि मैं तो यह कहूँगी कि इन तमाम दुःखों के होते हुए भी मैं बड़ी सौभाग्यशालिनी हूँ। दरअसल में अपने को बहुत सुखी मानती हूँ, क्योंकि मेरे प्रिय पति, जो मेरे जीवन के आधार हैं, बराबर हर वक़्त मेरे साथ हैं। हाँ, एक बात है, जिसके बोझ से मेरी अंतरात्मा दबी जा रही है और जिससे मेरा हृदय विदीर्ण हो रहा है, वह यह कि मेरे पति को इतनी अधिक चिंता करनी पड़ती है और इतनी तकलीफ़ उठानी पड़ती है! अत्यंत भयंकर दुःखमय स्थिति में वे आत्म-विश्वास नहीं खोते, भविष्य के लिए आशा करते हैं, हमेशा हँसमुख बने रहते हैं और हँसी-मज़ाक़ करते रहते हैं। मुझे प्रसन्नचित्त देखकर उन्हें बड़ी ख़ुशी होती है और जब वे प्यारे बच्चों को मेरे चारों ओर किलकारियाँ मारते हुए देखते हैं तो उनका हृदय प्रफुल्लित हो उठता है।”

    साम्यवाद के प्रवर्तक कार्ल मार्क्स की धर्मपत्नी जयिनी ने उपर्युक्त पत्र अपनी एक सहेली को लिखा था। अब उन छोटे-छोटे कष्टों का भी हाल सुन लीजिए, जो इस दंपत्ति को उठाने पड़ रहे थे।

    उन दिनों कार्ल मार्क्स लंदन में रह रहे थे। डीन स्ट्रीट के नं. 27 में दो छोटे-छोटे कमरों में अत्यंत निर्धन आदमियों की बस्ती में अपने तमाम बाल-बच्चों के साथ छ: वर्ष तक उन्हें रहना पड़ा था। एक शयन-गृह और दूसरा बैठकख़ाना, रसोईघर और पढ़ने-लिखने के कमरे का काम देता था। आर्थिक संकट का क्या कहना! कार्लमार्क्स के जीवन-चरित में ई० बी० कार नामक लेखक ने लिखा है—“कितने ही अवसर ऐसे आते थे, जबकि घर में एक पेनी भी नहीं रहती थी और बाल-बच्चों के साथ भूखों मरने की नौबत जाती थी। मकान मालिक और दुकानदारों के तक़ाज़ों के मारे नाकों दम थी। हर घड़ी कोई-न-कोई खड़ा रहता था। दरवाज़े पर आवाज़ आती रहती थी—“मार्क्स, मार्क्स, हमारे दाम अभी तक नहीं पहुँचे, हिसाब कब तक साफ़ करोगे?” बच्चे भी इस स्थिति को समझ गए थे और वे यह जवाब देना भी सीख गए थे—“मिस्टर मार्क्स घर पर नहीं हैं, कहीं बाहर गए हुए हैं।” कभी इस दुकानदार से रुपया उधार लाते तो कभी उससे। कभी किसी दोस्त का दरवाज़ा खटखटाते तो कभी किसी बौहरे के यहाँ अपनी स्त्री का गहना गिरवी रखने जाते। एक चिट्ठी में कार्ल मार्क्स ने लिखा था—“पिछले पंद्रह दिनों में मुझे नित्यप्रति छह-छह घंटे इधर-उधर दौड़ना पड़ा है, जिससे कहीं से छह आने पैसे जुटाकर अपने बाल-बच्चों के तथा अपने पेट में कुछ डाल सकूँ।” कभी-कभी तो उन्हें लिखने के लिए काग़ज़ लाने के वास्ते अपना ओवरकोट भी गिरवी रखना पड़ता था!

    फ़रवरी सन् 1852 में कार्ल मार्क्स ने अपने परम मित्र एंजिल्स को लिखा था—“पिछले हफ़्ते-भर से मेरी हालत बड़े मज़े की रही है। सर्दी के मारे घर से निकला नहीं जाता, क्योंकि ओवरकोट तो गिरवी रखे हुए हैं और गोश्त भी खाने को नहीं मिलता; क्योंकि क़साई ने उधार देने से इंकार कर दिया है। इस बीच में एक ही ख़ुशख़बरी सुनाई दी है, वह यह कि आख़िर मेरे चचिया ससुर साहब बीमार हैं। साली की चिट्ठी में यह शुभ समाचार आया है। अगर ये मनहूस चल बसे तो मेरी स्त्री को कुछ पैसा मिल जाएगा और मेरा इस संकट से उद्धार हो जाएगा।” पर चचिया ससुर साहब को अपने भाई के दामाद की इस प्रकार सहायता करने की जल्दी नहीं थी।

    सारे कुटुंब के भूखों मरने की नौबत गई थी। कभी-कभी उन्हें भोजन के लिए केवल रोटी ही मिलती थी और उसमें भी मार्क्स को अपना भाग छोड़ देना पड़ता था, जिससे बच्चों को भरपेट भोजन मिल सके। भूख और जाड़े से चेतनाहीन-से होने पर भी कार्ल मार्क्स ब्रिटिश म्यूज़ियम में जा कर अध्ययन करते थे और सामयिक पत्रों के लिए लेख लिख कर, जिनका पारिश्रमिक बहुत थोड़ा मिलता था, वे कुछ पैसा कमा लेते थे और अपनी गुज़र करते थे। निर्धनता से अत्यंत तंग कर उन्होंने रेल के दफ़्तर में क्लर्की के लिए अर्ज़ी दी; पर हस्ताक्षर ख़राब होने के कारण वह भी नामंज़ूर हो गई। बाद में वे ‘न्यूयार्क ट्रिब्यून’ के लंदन के संवाद दाता नियुक्त हुए। इससे उन्हें एक पौंड प्रति सप्ताह मिल जाता था। वर्षों तक इसी अल्प आय पर सारे परिवार को गुज़र करनी पड़ी थी। लंदन-जैसे महानगर में एक पौंड की नाम-मात्र की आमदनी से क्या हो सकता था, इसका अनुमान पाठक ख़ुद ही कर सकते हैं।

    श्रीमती जयिनी मार्क्स ने अपने एक पत्र में लिखा था—“हम लोगों के विषय में कोई यह नहीं कह सकता कि हम ने वर्षों तक जो त्याग किए थे, अथवा जो-जो बातें सही हैं, उनका कभी ढिंढोरा पीटा हो। हमारे व्यक्तिगत मामलों और दिक़्क़तों की ख़बर बाहर बिल्कुल नहीं गई अथवा यदि गई भी तो बहुत थोड़ी। अपने पत्र का राजनीतिक सम्मान बचाने के लिए और अपने मित्रों के नागरिक सम्मान की रक्षा के लिए मेरे पति ने सारा बोझ अपने कंधों पर उठा लिया। उन्होंने अपनी सारी आय ख़र्च कर दी और विदा होते समय संपादक का वेतन तथा अन्य बिल चुकाए, और वे ज़बरदस्ती अपने देश से निकाल बाहर किए गए। तुम जानते हो कि हमने अपने लिए कुछ नहीं रखा। मैंने फ्रांकफुर्त जाकर चाँदी के अंतिम बर्तन गिरवी रखे थे और कोलोन में अपना फ़र्नीचर बेचा था। तुम लंदन की और वहाँ की अवस्था को काफ़ी अच्छी तरह जानते हो। तीन बच्चे थे और चौथा उत्पन्न होने वाला था। केवल किराए में प्रतिमास 42 थेलर चले जाते थे। हमारी जो कुछ थोड़ी जमा पूँजी थी, वह शीघ्र ही बिला गई। दूध पिलाने वाली धाय के रखने का सवाल कल्पना से परे था, इसलिए मैंने अपना ही दूध पिलाकर बच्चे का पालना निश्चय किया, यद्यपि मेरी छाती और पीठ में बराबर भयानक दर्द रहता था। उस नन्हें से बच्चे ने चुपचाप मेरी चिंताओं को इतना अधिक पी लिया था कि पैदाइश के दिन से ही वह बीमार-सा था। वह दिन-रात पीड़ा से व्यथित पड़ा रहता था। इस प्रकार एक दिन में बैठी हुई थी कि इतने में अचानक मकान वाली आई। उसे हम जाड़े में 250 थेलर दे चुके थे और अब यह क़रार हुआ था कि भविष्य में हम लोग किराया मकान मालिक को दिया करेंगे। उसने इस इक़रार से इंकार कर दिया और पाँच पौण्ड जो किराए के थे, माँगने लगी। चूँकि हम लोग उसी समय किराया दे सके, इसलिए दो कान्स्टेबिल घुस आए। उन्होंने हमारी बची-खुची चीज़ों को—चारपाई, कपड़े, बिछौने, यहाँ तक कि मेरे छोटे बच्चे का पालना और मेरी दोनों लड़कियों के, जो पास खड़ी हुई फूट-फूट कर रो रही थीं, खिलौने तक—कुर्क कर लिया। उन्होंने यह भी धमकी दी कि दो घंटे के भीतर वे प्रत्येक वस्तु उठा ले जाएँगे। मैं कठोर भूमि पर अपने सर्दी से गलते हुए बच्चों को लिए पड़ी थी।... दूसरे दिन हमें घर से निकलना पड़ा। पानी बरस रहा था, ठंड पड़ रही थी और चारों ओर मनहूसी छाई थी। मेरे पति सवेरे से ही कमरों की तलाश में गए थे; परंतु चार बच्चों की बात सुनकर कोई भी हमें रखने को राज़ी होता था। अंत में एक मित्र ने मदद की। दवाख़ानेवाले, रोटीवाले, माँसवाले और दूधवाले का दाम चुकाने के लिए मैंने अपने बिस्तर बेच डाले। मकानवाली के कांड से यह सब डर गए थे और सबने फ़ौरन ही अपने-अपने बिल पेश कर दिए थे। बिछौने फुटपाथ पर लाकर एक गाड़ी पर लाद दिए गए। हम लोगों के पास जो कुछ था, उसे बेचकर हम लोगों ने पाई-पाई चुका दी।”

    इस भयंकर ग़रीबी की हालत में इस दम्पति के कई बच्चे पैदा हुए। मार्क्स प्रेमी पिता थे। वे कहा करते थे—“माता-पिता बच्चों का पालन-पोषण थोड़ा ही करते हैं, बल्कि बच्चे माता-पिता का पालन-पोषण करते हैं।” अपने प्यारे बच्चों को वे बड़े प्रेम से पालते थे। हर एक बच्चे का उन्होंने प्रेम का नाम रख छोड़ा था। अत्यंत संकट-मय स्थिति में भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी थी; पर ग़रीबी के कारण जिस मोहल्ले में उन्हें रहना पड़ता था, वह अत्यंत गंदा था और उसकी आब-ओ-हवा इतनी ख़राब थी कि बच्चे हमेशा बीमार ही रहा करते थे। इन बच्चों की भूखी माँ कहाँ तक अपना दूध पिलाती? बेचारे एक-एक करके इस दु:खमय संसार से चलने लगे। इस प्रकार आधे बच्चे अपने माता-पिता को रुला कर चल बसे। मार्क्स के जीवन-चरित-लेखक मि० जे० स्पारगो ने लिखा है—“मार्क्स का चौथा बच्चा हेनरी, जो लंदन में उत्पन्न हुआ था, जन्म से ही दरिद्रता के क्रूर दैत्य के श्राप का भाजन था और उसे छोटी अवस्था में ही मृत्यु बदी थी, जो सहस्रों ही बच्चों के भाग्य में लिखी रहती है। यह पहला ही अवसर था, जब मृत्यु ने मार्क्स के क्षुद्र घर में प्रवेश किया था। माता-पिता को यह चोट और भी गहरी लगी, क्योंकि वे जानते थे कि उनके नन्हें बच्चे की, जिसने क्षुधा-पीड़ित माता के स्तनों का रक्त पिया था, वास्तव में दरिद्रता ने हत्या की थी।”

    इसके बाद सन् 1852 की वसंत ऋतु में इस दुःखी दम्पति की छोटी कन्या फ़्रांसिस्का की मृत्यु हो गई। जयिनी की डायरी में उस समय की भयंकर दरिद्रता का इस प्रकार उल्लेख है—

    “इसी वर्ष ईस्टर—सन् 1852—में हमारी बेचारी छोटी फ़्रांसिस्का कंठनाली के भयंकर प्रदाह से चल बसी। तीन दिन तक बेचारी मृत्यु से संघर्ष करती रही। उसका छोटा मृत शरीर पीछे के छोटे कमरे में पड़ा था। हम सब आगे के कमरे में चले आए। रात में हम लोग उसी कमरे के फ़र्श पर सोए। मेरी तीनों जीवित संतानें मेरे पास लेटी।

    “...हमारी बच्ची की मृत्यु उस समय हुई, जब हमारी दरिद्रता का सब से बुरा समय था। हमारे जर्मन मित्र हमारी सहायता नहीं कर सके।...अंत में आत्म-वेदना से त्रसित होकर मैं एक फ़्रेंच निर्वासित के पास गई, जो समीप ही रहता था और कभी-कभी हमारे यहाँ आता रहता था। मैंने उससे अपनी दारुण आवश्यकता बतलाई। उसने तुरंत ही बड़ी मित्रतापूर्ण सहानुभूति से मुझे दो पौंड दिए। इसी से हमने अपनी प्यारी बच्ची के कफ़न (ताबूत) के दाम चुकाए, जिसमें वह शांतिपूर्वक सुला दी गई।”

    इसके बाद जयिनी का आठ वर्ष का इकलौता बेटा एडगर, जिसे मार्क्स प्रेम के नाम से ‘मश’ कह कर पुकारा करते थे, मंद ज्वर से चल बसा। इस भयंकर वज्रपात को मार्क्स भी, जो स्वभावतः बड़े धैर्यशाली थे, सहन नहीं कर सके। मार्क्स कभी किसी के सामने अपना दुखड़ा नहीं रोते थे; पर पुत्र-शोक ने उनको भी विचलित कर दिया। उन्होंने उसकी मृत्यु के तीन महीने के बाद अपने एक मित्र को लिखा था—

    “बेकन ने लिखा है कि जो आदमी वास्तव में सुयोग्य होते हैं, उनके प्रकृति तथा संसार से इतने अधिक संबंध होते हैं और उनकी रुचि इतनी अधिक वस्तुओं में होती है कि किसी भी क्षति या हानि को वे आसानी से सहन कर लेते हैं; पर मैं तो उन सुयोग्य व्यक्तियों में से नहीं हूँ। लड़के की मृत्यु ने मेरे हृदय तथा मस्तिष्क को बिल्कुल ही चकना चूर कर दिया है और आज भी वह क्षति मेरे लिए उतनी ही ताज़ी है, जितनी कि पहले दिन थी। मेरी स्त्री का भी स्वास्थ्य बिल्कुल नष्ट हो गया है।”

    इस दुर्घटना ने जयिनी को तो बिल्कुल पागल-सा ही बना दिया था। बहुत वर्षों बाद तक उसकी हूक उनके कलेजे में व्याप्त रही। इस वज्रपात से बीस वर्ष बाद के एक पत्र में जयिनी ने बड़े ही करुणाजनक ढंग से लिखा था—“मैं इस बात को ख़ूब अच्छी तरह जानती हूँ कि इस प्रकार के भयंकर वज्रपातों को सहन करना कितना कठिन है और फिर इनके बाद अपने मस्तिष्क को ठीक-ठिकाने लाने में कितनी देर लग जाती है! उस समय जीवन की छोटी-छोटी प्रसन्नताओं, बड़ी-बड़ी फ़िक्रों, नित्यप्रति के घरेलू काम-धंधों और दैनिक झंझटों से पीड़ित व्यक्ति को बड़ी मदद मिलती है। तत्कालीन छोटे-छोटे कष्टों की वजह से वह महान् दुःख थोड़ी देर के लिए सो जाता है और बिना हमारे पहचाने उसकी पीड़ा दिनों-दिन मंदतर होती जाती है। यह तो मैं नहीं कहूँगी कि घाव भर जाता है। घाव तो कभी नहीं भरता—ख़ासतौर से माँ के हृदय का घाव तो कभी नहीं पूरता; लेकिन क्रमशः हृदय में एक प्रकार की नवीन ग्रहणशक्ति उत्पन्न होने लगती है, नवीन कष्टों और नवीन प्रसन्नताओं के स्वागत के लिए एक भावना-सी पैदा होने लगती है। इस प्रकार उस पीड़ित व्यक्ति के दिन-पर-दिन बीतते जाते हैं। उसका हृदय घायल तो रहता ही है; पर उसमें नवीन आशाओं का संचार निरंतर होता रहता है। अंत में सारा मामला शांतर (हो जाता है और अनंत शांति मिल जाती है।”

    संसार के निर्धन पीड़ित व्यक्तियों को जयिनी के उपर्युक्त वाक्यों से अवश्य ही बड़ी सांत्वना मिल सकती है।

    जयिनी का जीवन-चरित किसी उपन्यास से कम मनोरंजक और हृदयबेधक नहीं है। उसका जन्म एक बड़े साधन-संपन्न परिवार में हुआ था। उसका पिता प्रशिया में एक अत्यंत उच्च पद पर था। वह मार्क्स की बड़ी बहन सोफ़ी के साथ एक स्कूल में पढ़ती थी, इसलिए कभी-कभी सोफ़ी के पास घर आया करती थी। बस, यहीं से प्रेम का अंकुर उगना शुरू हुआ जयिनी की उम्र बाईस वर्ष की थी, जबकि कार्ल मार्क्स कुल अठारह वर्ष के ही थे। कुछ दिनों तक तो यह प्रेम छिपा रहा और लोग यही समझते रहे कि जयिनी अपनी सहेली सोफ़ी के पास यूँही आती-जाती है; पर प्रेम की आँखें कबतक छिपाए छिप सकती हैं? मार्क्स के माता-पिता को इस बात का पता लगा गया; लेकिन जयिनी को इतनी हिम्मत हुई कि वह अपने माता-पिता से इस बात का ज़िक्र करती। इसके बाद कार्ल मार्क्स को बर्लिन जाना पड़ा। बहन सोफ़ी ने इस अवसर पर दूती का काम किया। कार्ल मार्क्स की चिट्ठी जयिनी के पास पहुँचाना उसी का काम था। और तो और, कार्ल मार्क्स के पिता भी, जो अपने पुत्र को अत्यंत प्रेम करते थे, इस मामले में काफ़ी दिलचस्पी लेने लगे थे। उन्होंने अपनी एक चिट्ठी में मार्क्स को लिखा था—

    “मेरे प्रिय कार्ल, तुम यह बात जानते हो कि कभी-कभी मैं ऐसे मामलों में फँस जाता हूँ, जो मुझे इस उम्र में शोभा नहीं देते और जिनके कारण मुझे बड़ी परेशानी उठानी पड़ती है। तुम्हारी ज...ने मुझपर असीम विश्वास करना प्रारंभ कर दिया है और अपने दिल की प्रत्येक बात वह मुझसे कह देती है। प्यारी भोली-भाली लड़की सदा इस चिंता में त्रस्त रहती है कि कहीं उसकी वजह से तुम्हारे भावी कार्य में बाधा पड़े और कहीं तुम सामर्थ्य से अधिक परिश्रम करने लगो। उसे सबसे बड़ी फ़िक्र इस बात की लगी रहती है कि उसके माता-पिता इस बारे में कुछ भी नहीं जानते; बल्कि मैं तो यह कहूँगा कि वे इस बारे में कुछ भी जानना नहीं चाहते। यह बात ख़ुद जयिनी को समझ में नहीं आती कि वह, जो अपने को बड़ी सुलझी हुई और समझदार लड़की समझती है, इस प्रेमपाश में बंध कैसें गई?”

    अब यह मुश्किल सवाल सामने था कि जयिनी के माता-पिता को इस घटना की सूचना कौन दे? इस बात को जयिनी जानती थी कि जब मेरे माता-पिता सुनेंगे कि मैंने ग़रीब घर के एक लड़के से, जों मुझसे उम्र में भी चार वर्ष छोटा है, प्रेम कर लिया है, तो उनके दिल को बड़ा धक्का लगेगा। कहाँ प्रशिया के एक उच्च पदाधिकारी की लड़की और कहाँ एक साधारण यहूदी वकील का लड़का।

    आख़िर कार्ल ने यह सोचा कि मैं ही इस कार्य को करूँगा। यह निश्चित हुआ कि वह बर्लिन से पत्र द्वारा अपने भावी ससुर को इस बात की सूचना दे। जयिनी डर के मारे थरथर काँपती थी कि जाने उसके माता-पिता इस घटना से कितने पीड़ित होंगे, इसलिए उसने यह अनुरोध किया कि चिट्ठी डाक में डालने से आठ दिन पहले मुझे ख़बर मिल जानी चाहिए; ताकि मैं उस अग्नि-परीक्षा के लिए तैयार हो जाऊँ! दुर्भाग्य से कार्ल मार्क्स का यह पत्र सुरक्षित नहीं रहा और हमें इस बात का पता लगता है कि आख़िर सास-ससुर ने उस पत्र का किस प्रकार स्वागत किया; पर प्रतीत होता है कि सास-ससुर ने होनहार प्रबल समझकर इस प्रस्ताव को सहन कर लिया।

    हृदय-क्षेत्र में प्रेम के इस प्रवेश ने कार्ल मार्क्स के नीरस हृदय में कवित्व का संचार कर दिया। पाठकों को यह सुनकर आश्चर्य होगा कि साम्यवाद के आचार्य कार्ल मार्क्स की प्रथम रचना शिक्षित जनता के सम्मुख कविता के रूप में आई। आगे चलकर श्रीमती जयिनी बड़े अभिमान में अपने यहाँ आनेवालों से कहा करती थीं—“कभी वह भी ज़माना था, मेरे ये दार्शनिक और अर्थशास्त्री पति मेरे प्रेम के कारण कवि बन गए थे।”

    12 जून सन् 1843, को जबकि उनकी सगाई हुई छह-सात वर्ष हो गए थे, मार्क्स ने जयिनी का पाणिग्रहण किया। 2 दिसंबर सन् 1881 को सती-साध्वी जयिनी ने इस लोक से प्रयाण किया इस तरह पूरे 38 वर्ष, यह जोड़ी संसार के हित के लिए अनंत दुःख सहती रही।

    विवाह के बाद मार्क्स भोग-विलास में नहीं पड़ गए; बल्कि उसके बाद के तीन महीनों में मार्क्स ने राजनीतिक, आर्थिक तथा विधान संबंधी इतिहास के एक सौ ग्रंथ पढ़े और तीन लंबी-लंबी कॉपियों में उनके नोट लिए।

    विवाह के 18 वर्ष बाद जयिनी ने अपनी एक सहेली श्रीमती वेडमेयर को 11 मार्च सन् 1861 के पत्र में लिखा था—

    “यहाँ हमारे जीवन के आरंभिक वर्ष बड़े कटु थे; परंतु आज मैं उन दुःखदायिनी स्मृतियों पर, अपने कष्टों और दु:खों पर अथवा अपने प्यारे स्वर्गीय बच्चों पर—जिनके चित्र हमारे हृदय में गहरे शोक से अंकित हैं—कुछ नहीं लिखना चाहती।...फिर पहला अमरीकन संकट आया और हमारी आय (‘न्यूयार्क ट्रिब्यून’ से) काटकर आधी कर दी गई। एक बार फिर हमें अपने पारिवारिक व्यय को संकुचित करना पड़ा और हमपर क़र्ज़ भी हो गया।...अब मैं अपने जीवन के सबसे उज्ज्वल अंश पर आती हूँ। जो हमारे अस्तित्व में प्रकाश और प्रसन्नता की एकमात्र किरण थी—वह थीं हमारी लड़कियाँ। हमारी लड़कियाँ अपने स्वार्थहीन और मधुर स्वभाव से हमें सदा आनंदित किया करती हैं; परंतु उनकी छोटी बहन तो घर-भर के लिए प्रेम की मूरत हो रही है।...मुझे बड़ा भयंकर बुख़ार आया और डाक्टर बुलाना पड़ा। 20 नवंबर को डाक्टर आया, उसने मुझे अच्छी तरह देखा और बड़ी देर तक चुप रहने के बाद बोला—‘श्रीमती मार्क्स! मुझे अफ़सोस से कहना पड़ता है कि आपको चेचक निकली है—बच्चों को फ़ौरन घर से हटा दीजिए।’ उसके इस फ़ैसले पर घर भर को कैसा दुःख हुआ और हम कैसी मुसीबत में पड़े, इसकी तुम कल्पना कर सकती हो!...मैं मुश्किल से चारपाई छोड़ने के योग्य हुई थी कि इतने में हमारे प्यारे कार्ल बीमार पड़ गए। सब तरह की चिंताओं, फ़िक्रों और अत्यधिक आशंकाओं ने उन्हें शय्याशायी कर दिया; परंतु ईश्वर को धन्यवाद है कि चार सप्ताह की बीमारी के बाद वे अच्छे हो गए। इस बीच में फिर ‘ट्रिब्यून’ ने हमारा वेतन आधा कर दिया था।...मेरी प्यारी सखी, तुम्हें मेरा प्रेमपूर्ण अभिवादन है। ईश्वर करे, परीक्षा के इन दिनों में तुम वीर बनी रहो। संसार साहसी व्यक्तियों का है। बराबर अपने पति को दृढ़ता और हृदय से सहायता देती रहो तथा शरीर और मन को सदा सहिष्णु बनाए रखो।...तुम्हारी हार्दिक मित्र—जेनी मार्क्स।”

    आर्थिक दुर्दशा की हद हो गई थी। शनिवार का दिन था। घर में एक पैसा भी था, किसी मित्र से कुछ उधार मिला और किसी दुकानदार ने सामान उधार दिया। कल इतवार को सवेरे खाना कैसे बनेगा, इसकी फ़िक्र थी। आख़िर जयिनी ने कहा— “और तो कुछ है नहीं, मेरे मायके के ये ठोस चाँदी के चम्मच हैं, इन्हें कहीं गिरवी रख के कुछ दाम लाओ।” कार्ल मार्क्स उन्हें ही लेकर दुकानदार के पास पहुँचे। दुकानदार ने देखा कि उन चाँदी के चम्मचों के ऊपर आजिल के ड्युक का राजचिह्न है। उसे शक हुआ और उसने सोचा कि हो हो, इस विदेशी भिखमंगे ने इस चीज़ को कहीं से चुराया है। चोरी का माल समझकर उसने पुलिस के सिपाही को बुलाया। मार्क्स ने बहुत समझाया-बुझाया कि इन्हें मेरी पत्नी अपने मायके से लाई है; पर उनकी कौन सुनता? पुलिसवाला कार्ल मार्क्स को पकड़ कर थाने पर ले गया। वहाँ उन्हें जाकर हवालात में बंद कर दिया और कह दिया कि जबतक जाँच हो जाए, तबतक यहीं बैठो। सोमवार को सवेरे जाकर पता लगा कि ये महाशय कौन हैं और तब वे छोड़ दिए गए।

    संकट के दिन आए और एक के बाद दूसरी आपत्तियाँ आईं। जयिनी कभी-कभी बड़ी निराश हो जाती थीं। मार्क्स ने अपने एक पत्र में लिखा था—

    “मेरी स्त्री मुझसे प्रतिदिन यही कहा करती है कि ‘इस दुर्दशा से यही अच्छा होता कि मैं अपने बच्चों के साथ क़ब्र में चली गई होती।’ पर मैं अपनी पत्नी को दोष नहीं देता, क्योंकि जैसी अपमानजनक स्थिति में हमें रहना पड़ता है, जो अत्याचार और कष्ट हमें सहने पड़ते हैं, जिस प्रकार पग-पग पर हमें ज़लील होना पड़ता है, उसका बयान नहीं किया जा सकता।”

    कार्ल मार्क्स ने अपने किसी-किसी पत्र में जयिनी के चिड़चिड़े स्वभाव की आलोचना की है; पर अनुमान तो कीजिए उस बेचारी पत्नी का, जिसका पति नित्यप्रति बारह-बारह घंटे पुस्तकालय में बिताता हो, जो अपने बच्चों को सूखी रोटी खिलाने में असमर्थ हो और जो घर के लिए नोन-तेल-लकड़ी की फ़िक्र छोड़कर भावी संसार के प्रश्नों पर दार्शनिक विचार करने में मग्न हो! भला, इस विकट परिस्थिति में किस पाठक-पाठिका की सहानुभूति जयिनी के साथ होगी?

    यह बात ध्यान देने योग्य है कि जयिनी अपने पति मार्क्स से उम्र में चार वर्ष बड़ी थी, इसलिए बुढ़ापा उस पर और भी जल्दी गया था। छः बच्चे उसके हो चुके थे और ग़रीबी तथा बच्चों की मृत्यु ने उसके शरीर को अत्यंत निर्बल और मस्तिष्क की स्नायुओं को और भी कमज़ोर कर दिया था। सबसे बड़ी चिंता जयिनी को अपनी लड़कियों की रहती थी। ये लड़कियाँ पढ़ने-लिखने में बड़ी तेज़ थीं और क्लास में सदा अव्वल रहा करती थीं। जयिनी एक काम करती थी, वह यह कि पति की थोड़ी-सी आमदनी में से लड़कियों की फ़ीस पहले निकाल लेती थी। उसे सबसे बड़ी फ़िक्र इस बात की थी कि कहीं घर की निर्धनता के कारण मेरी लड़कियों को स्कूल में ज़लील होना पड़े; पर निर्धन माता-पिता की इन पुत्रियों को अपनी सखी-सहेलियों के सामने आत्म-सम्मान की रक्षा करना अत्यंत कठिन हो रहा था। माता और पुत्रियों में कभी-कभी झगड़ा हो जाया करता था। ऐसे मौक़ों पर मार्क्स पुत्रियों का पक्ष लेते थे। मार्क्स को उस समय बड़ा दुःख हुआ था, जब उनकी लड़की को मजबूर होकर एक अंग्रेज़ कुटुंब में दिन-भर बच्चों की देख-भाल करने और पढ़ाने की नौकरी करनी पड़ी थी। कार्ल मार्क्स ने उन दिनों अपने एक मित्र को लिखा था—“मेरी स्त्री इतने चिड़चिड़े स्वभाव की हो गई है कि हमेशा बच्चों को लिए-दिए रहती है। मुझे लड़की का नौकरी करना निहायत नापसंद आया; पर वह बेचारी माँ के व्यंगों से तो बची रहेगी!

    यद्यपि मार्क्स अपनी पत्नी के इस चिड़चिड़े स्वभाव से, जिसके लिए वे कम ज़िम्मेवार थे, कभी-कभी तंग जाते थे; पर हृदय से उसके प्रति श्रद्धा रखते थे। एक पत्र में उन्होंने जयिनी को लिखा था—

    “प्रियतमे,

    तुम्हारी चिट्ठी से मुझे बड़ी ख़ुशी हुई। मुझसे हृदय की सब बात खोलकर कहने में तुम्हें कभी संकोच नहीं करना चाहिए। प्रियतमे, जब तुम्हें कठोर वास्तविकता का इतना अधिक सामना करना पड़ता है तो कम-से-कम इतना फ़र्ज़ मेरा भी है कि तुम्हारे कष्टों को मैं अपने हृदय से अनुभव तो करूँ। मैं इस बात को ख़ूब अच्छी तरह जानता हूँ कि तुम्हारी सहनशक्ति असीम है और छोटी-से-छोटी अच्छी ख़बर से तुममें फिर जान जाती है। मुझे आशा है कि तुम्हें इस सप्ताह फिर पाँव पौंड भेज सकूँगा। इस सप्ताह नहीं तो सोमवार तक ज़रूर भेज सकूँगा।”

    निस्संदेह जयिनी में अंनत सहनशीलता थी।

    अपने संकट के दिन कितने धैर्य के साथ इस दम्पति ने काटे, उसका विस्तृत वृत्तांत लिखने के लिए यहाँ स्थान नहीं। जब कभी वे थोड़ा भी निश्चित होते तो एक-दूसरे का हाथ पकड़कर कमरे में इधर-उधर टहलते और जर्मन भाषा के प्रेम के गीत गाया करते थे ठीक उसी प्रकार, जैसे वे अपने देश में, यौवन के आरंभ में ग्रीष्म ऋतु में, पुष्पों से लदे वृक्षों के नीचे गाया करते थे।

    भोजन-वस्त्र के अभाव में इस प्रकार प्रसन्न रहना अत्यंत कठिन काम था। एक बार कार्ल मार्क्स के किसी मित्र ने जयिनी तथा उसकी दो लड़कियों के लिए सुंदर कपड़े भेज दिए थे। उनको धन्यवाद देते हुए जयिनी ने लिखा था, “आपको यह सुनकर हर्ष होगा कि लड़कियाँ आपकी भेजी हुई पोशाक को पहनकर बड़ी मनोहर लगती हैं। इन कपड़ों में उनके चेहरे कैसे मधुर, कैसे हास्यमय लगते हैं और कैसी ताज़गी उनसे टपकती है! आपने जो मेरे लिए कपड़े भेजे हैं, उन्हें पहनकर मैं भी बड़ी शानदार जँचती हूँ। जब मैं उन्हें पहनकर अभिमान के साथ अपने कमरे में टहलने लगी तो छोटी बच्ची ने पीछे से चिल्लाकर कहा—‘अम्मा-अम्मा, मोर-जैसी अम्मा!’ अगर आज भयंकर सर्दी होती तो मैं तुम्हारे भेजे हुए इन्हीं वस्त्रों को पहनकर बाहर निकलती, जिससे पास-पड़ोस के अभिमानी आदमियों पर कुछ रोब तो गंठता।”

    जयिनी का शरीर अत्यंत जीर्ण हो चुका था। सन् 1881 में जयिनी अपने पति के साथ पेरिस गई और अपनो दोनों लड़कियों से, जो विवाह के बाद पेरिस में बस गई थीं, जाकर मिली। पेरिस से लौट कर मार्क्स अत्यंत बीमार हो गए। जयिनी तो पहले से ही अत्यंत निर्बल थी। ऐसा प्रतीत हआ कि वे दोनों साथ ही साथ इस संसार से कूच करेंगे; पर कार्ल मार्क्स की तबीअत कुछ सुधर गई और जयिनी की मृत्यु के समय वे उपस्थित थे। जब जयिनी बिल्कुल मरणासन्न थी, कुछ घंटे ही मरने में बाक़ी थे, तब ‘Modern Thought’ (आधुनिक विचार) नामक पत्र से किसी व्यक्ति का लेख जो मार्क्स की प्रशंसा में लिखा गया था उसे सुनाया गया। विलायत में यह पहला ही लेख था, जो मार्क्स की तारीफ़ में लिखा गया था। पतिव्रता जयिनी ने इस लेख को सुनकर संतोष की एक साँस ली।

    2 दिसंबर को जयिनी स्वर्ग सिधारी। मार्क्स इसके बाद पंद्रह महीने और जीवित रहे और अपनी पत्नी को बार-बार याद करते रहे। वे कहते थे— “जयिनी मेरे जीवन की सर्वोत्तम भाग की सर्मिणी थी।” 14 मार्च 1883 को कार्ल मार्क्स का देहांत हुआ और दोनों की समाधि एक ही स्थल पर है।

    लाला हरदयाल का यह कथन वास्तव में सत्य है कि युगयुगांतर तक इस दम्पत्ति—जयिनी-मार्क्स—की कष्ट-गाथा साधारण जनता को प्रोत्साहित करती रहेगी और भविष्य के बंधनमुक्त मज़दूरों के लिए वह बाइबिल का काम देगी।

    स्रोत :
    • पुस्तक : अमिट रेखाएँ (पृष्ठ 83)
    • संपादक : सत्यवती मलिक
    • रचनाकार : बनारसीदास चतुर्वेदी
    • प्रकाशन : सत्साहित्य प्रकाशन
    • संस्करण : 1955
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

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