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दुर्गाप्रसाद गुप्त

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और अधिकदुर्गाप्रसाद गुप्त

    मेरे मित्र लज्जा शंकर यूनिवर्सिटी में दर्शन के अध्यापक थे। साहित्य से उनको विशेष रूचि थी। वे स्वयं कविता लिखते थे और नशीली-सी आँखों से साहित्य-संबंधी बातें करते थे। जीवन के प्रति उनके उच्च आदर्श थे; छोटी बात वे मन में लाते तक थे। अतएव सभी उनके मीठे स्वभाव और हँसमुख व्यवहार से प्रसन्न थे।

    मि० लज्जा शंकर यूनिवर्सिटी के शिक्षक का पद समाज में बहुत समझते थे। वे आई० सी० एस० वालों, हाई कोर्ट के जजों और बड़े राजनीतिक नेताओं से बराबरी के दर्जे मिलते थे, उनके घर जाते और उन्हें अपने यहाँ बुलाते थे। अच्छा खाने-पीने में उनका विश्वास था। आए-दिन उनके घर दावतें हुआ करती थीं।

    किंतु उनका वेतन कम था। अतएव उनके बजट में खींचा-तानी रहती। अकसर ही वे ऋण-ग्रस्त रहते। उनके लिए तो यह ज़रूरी था कि साफ़ कपड़े पहनें; वर्ना सभा-सोसाइटियों में मुँह कैसे दिखाते? लेकिन घर के अंदर हालत ख़राब थी। बीवी-बच्चे फटे-हाल रहते। मश्किल से बाहर निकल पाते। लड़का स्कूल भी संकोच से जाता। दावतों के लिए पत्नी को अकसर चूल्हा फूकना पड़ता। वह ख़ूब ही झल्लाती। जितनी ही प्रोफ़ेसर साहब की घर के बाहर इज़्ज़त थी उतनी ही घर में हेटी होती। कभी-कभी श्रीमती जी झल्ला कर ज़ोर से बोल पड़ती, और उनका कर्कश स्वर बैठके में पहुँच जाता। तब प्रोफ़ेसर साहब का मुँह लाल हो जाता और ऊँचे सरकारी ओहदेदारों के साथ समानता का उनका स्वप्न भंग हो जाता।

    किस मुँह से वे सामाजिक नेतृत्व का ढोंग भरते। इस विचित्र लड़ाई में सैनिक तो खेत ही रहे थे, किंतु मोर्चे के पीछे हालत और भी ख़राब थी। भूख से, रोग से, मक्खियों की तरह लोग पटापट मर रहे थे। कुछ लज्जावश आत्मघात कर लेते थे। यह हालत बंगाल की ही थी, अन्य सूबों की ओर भी कहत बढ़ रहा था।

    प्रोफ़ेसर साहब राजनीतिक प्राणी थे। किंतु वे इस दुर्व्यवस्था से बड़े असंतुष्ट थे। अनेक बार अपने उच्च-पदाधीश मित्रों से वे लड़ पड़े थे। गोरे-काले के भेद से वे बहुत तिलमिलाते थे। वे यह तो समझते थे कि पुरानी सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था लड़ाई का भार सँभालने में असमर्थ थी और टूट रही थी। किंतु वे इतना अवश्य समझते थे कि घूस का बाज़ार कभी राष्ट्रीय सरकार गर्म होने देती; चोर बाज़ारी बंद कर देती।

    उनके पास मोटर थी, अर्दली-चपरासी। आज-कल नौकर चाकर रखना भी मुश्किल था। लड़ाई क्या थी, काल था। बाज़ार में कोई चीज़ मिलती थी। लकड़ी के दाम आसमान छू रहे थे; कोयला मिलता था। कपड़ा बाज़ार से ग़ायब हो गया था। सफ़ेदपोशी तक का स्वांग बनाए रखना असंभव था। हर चीज़ के दाम चौगुने पंचगुने हो गए थे।

    सरकारी मित्रों से मनमुटाव हो जाने पर प्रोफ़ेसर साहब खिन्न चित्त रहने लगे। उनका मन पढ़ाने में लगता, पढ़ने में। उन्होंने कविता लिखना भी बंद कर रखा था। कहते थे, जाने आज-कल क्यों मन भारी सा रहता है। अब वे उच्च कोटि के व्याख्यान देते, निबंध लिखते।

    उनका मन यूनिवर्सिटी से विरक्त हो उठा। वे कहने लगे, हमारे शिक्षण का लड़कों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। यह सब बेकार की मेहनत है! अध्यवसायी और परिश्रमी शिक्षकों पर वे हँसते थे। कहते मैं तो बुड्ढा हो गया, अब तुम लोग ही बोझा संभालो!

    जब केंद्रीय सरकार ने उन्हे अपनी युद्धोत्तर योजनाओं में मदद देने के लिए बुलाया, उन्होंने अनेक तर्क-वितर्क के उपरांत निमंत्रण स्वीकार कर लिया। यूनिवर्सिटी छोड़ने का उनके मन में अपार दुःख था; किंतु वे कहते, भई, पेट भी तो भरना चाहिए। वे भविष्य का स्वप्न मन-ही-मन देख रहे थे; मोटर अर्दली-चपरासी; हरे लॉन पर चाय-पार्टियाँ; गृह-कलह से सदा के लिए मुक्ति!

    यद्यपि यूनिवर्सिटी छोड़ने का उनके मन में सदमा था, किंतु इस सुख-स्वप्न ने उनके मुँह को एक दिव्य दीप्ति से आलोकित कर दिया। भाग्य ने अनायास ही स्वर्ग का द्वार उनके लिए खोल दिया था।

    स्रोत :
    • पुस्तक : रेखाचित्र
    • रचनाकार : प्रकाशचंद्र गुप्त
    • प्रकाशन : विद्यार्थी ग्रंथागार, प्रयाग

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