Font by Mehr Nastaliq Web

बंगाल का अकाल

Bangal Ka Akaal

प्रकाशचंद्र गुप्त

अन्य

अन्य

प्रकाशचंद्र गुप्त

बंगाल का अकाल

प्रकाशचंद्र गुप्त

और अधिकप्रकाशचंद्र गुप्त

    बंगाल की 'शस्य-श्यामला', 'सुजला' और 'सुफला' भूमि; सोने की धरती, जहाँ इतिहास की शाहकार का निरंतर संघर्ष हुआ है। आर्य, मंगोल... और फिर..., अंत में फ़िरंगी और मराठे, सभी...। प्रकृति का रूप मानो यहाँ पृथ्वी और आकाश फोड़कर निकला हो! धान के हरे खेत, ताल तलैये, केले, ताड़ अनन्नास, नारियल, बाँस' और कटहल के वन, अनेक नद, सरिता, पर्वतराज हिमालय और सागर की अनंत जल राशि। इस वैभव के इच्छुक इतिहास के अनेक डाक, जगत-सेठ, अलीवर्दी ख़ाँ, पेशवा बालाजी राव, राघोवा, मीर जाफ़र, अमीचंद, क्लाइव, वारेन हेस्टिंग्स। इनके विरोध में संघर्ष करती बंगाल की अमर आत्माएँ: लौह शलाका समान उसकी सुदृढ़, चमकीली विद्रोह की शक्ति, सिराजुद्दौला, चित्तरंजन, कवि-गुरु रवि ठाकुर।

    सदियों पर्यंत उस संस्कृति का गुरुतर विकास हुआ है, जो आज इतिहास के फंदे में पड़कर काल का ग्रास बन रही है, जिसे आज मनुष्य का गढ़ा अकाल और बर्बर फ़ासिज़्म मुँह बाए लीलने को रहे हैं, जिसकी रक्षा आज भारतीय जन-शक्ति का प्रमुख कर्तव्य है!

    बंगाल के आदिम निवासी जो प्रकृति की शक्तियों से भयभीत उन्हें पूजते थे, पश्चिम से बढ़ते आर्य आक्रमणकारी जो नया उल्लास और नया आह्नाद मन में लेकर आए थे; उत्तर और पूर्व से छनकर आते पीले रंग और तिरछी आँखों वाले मंगोल। अनेक जातियों और संस्कृतियों के मेल और संगम का इतिहास। इस विशाल नीव पर निर्मित बंगाल को शालीन सामंती इमारत। अंत में आधुनिक युग का जागरण और अनंत आलोक। राममोहन राय, केशवचंद्र सेन, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, विवेकानंद। विज्ञान, साहित्य, संगीत और अन्य ललित कलाओं का अभूतपूर्व विकास। जगदीश बोस, पी० सी० राय, रवि ठाकुर, नज़रुल इस्लाम, दिलीप राय, नंदलाल बोस। बंगाल की संस्कृति की भारतीय जीवन पर अमिट छाप।

    वह संस्कृति अकाल और बमों की मार से मानों अब काँच-सी टूटी, अब टूटी। लेकिन नहीं, वह टूट नहीं सकती! वह फ़ौलाद है, अगर हम एक हैं; वह कच्चा धागा नहीं, मज़बूत लोहे की रस्सी है। उसके पीछे चालीस करोड़ का बल है। अगर चीन की तरह हम भी अपने झगड़ों को भूलकर-एक हो जाएँ।

    बंगाल आज डूब रहा है। हर हफ़्ते बंगाल में एक लाख आदमी मरते हैं! आदमी और कुत्ते कूड़े के ढेर पर खाने की तलाश में एक साथ टूटते है, कुत्ता जीतता है, आदमी हारता है, क्योंकि उसके बदन में नाम को भी जान नहीं। जीते आदमियों को स्यार गाँवों से घसीट ले जाते हैं और जीते-जी खा डालते है। माँ बच्चो को मुठ्ठी भर अन्न के लिए बेच डालती है और पुरुष स्त्रियों को। बंगाल का अस्तित्व आज मिट रहा है, लेकिन आदमख़ोर व्यवसार्इ देश को मरघट बना कर मोटे हो रहे है। नौकरशाही के कान पर जूँ नहीं रेंगती; राष्ट्रीय नेता अब भी जेलों में बंद हैं और बंगाल की दलबंदियों में कोई शिकन नहीं पड़ती।

    भारत अकाल का देश है। हमने अपने इतिहास में कितने अकाल देखें हैं! लेकिन हम आज भी उसी तरह खेत गोड़ते हैं और बीज बोते है, जैसे चार हज़ार वर्ष पूर्व हमारे पुरखे। विज्ञान के आविष्कारों का हमारी खेती-बारी पर कोई असर ही नहीं हुआ। लेकिन रेल, नहर और तारों के जाल ने अकाल की मार कुछ कम ज़रूर कर दी।

    सूखा पड़ा, बाढ़ आई, लाखों मरे! इस बार सूखा, बाद। आदमी का बनाया यह अकाल है। नफ़ाख़ोरों के स्वार्थ का गढ़ा यह अकाल है! क्लाइव के सिपाहियों की तरह चावल का माड़ पीकर आदमी जीते हैं! मक्खियों अथवा टीड़ी-दल की भाँति वह मरते हैं, किंतु यह नरभेष करके अन्न के चक्रवर्ती दुनिया में अपना सिक्का चलाते हैं।

    अब फिर बंगाल के आकाश में फ़ासिस्टों के विमान मंडराने लगे। मुर्दे सूँघकर मरघट में चील-कौए और गिद्ध उतरने लगे। उनके लिए यह स्वर्ण अवसर है।

    अगर चालीस करोड़ की संख्या में कुछ बल है, तो उसकी आज ज़रूरत है। रवि ठाकुर का देश, कविता, संगीत और सभी ललिता कलाओं का देश बंगाल आज डूब रहा है। हमारा संयुक्त बल ही उसे उबार सकता है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : रेखाचित्र
    • रचनाकार : प्रकाशचंद्र गुप्त
    • प्रकाशन : विद्यार्थी ग्रंथागार, प्रयाग

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    हिन्दवी उत्सव, 27 जुलाई 2025, सीरी फ़ोर्ट ऑडिटोरियम, नई दिल्ली

    रजिस्टर कीजिए