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अख्तर हुसैन रायपुरी

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और अधिकअख्तर हुसैन रायपुरी

    जिस शहर की मिट्टी मुझमें बसी हुई है, उसका नाम ‘र’ से शुरू होता है। बरसों मैंने उसकी गलियों की ख़ाक छानी है। उसकी हवा अबतक मेरे क़हक़हों से लदी है। उसकी मिट्टी ने मेरी आँखों के कितने आँसू झटक लिए हैं। अधिक समय नहीं बीता कि मेरे स्मृति-पटल में उसकी एक एक ईंट की छवि चित्रित थी। हर मैदान और हर डगर की तस्वीर मुझे याद थी। उसके क़ब्रिस्तान के सिवा मैं हर जगह को जानता था। इस बार मैं उस वीराने को भी पहचान आया और अब में कह सकता हूँ कि इस नगर के प्रत्येक रजकण में मेरी आत्मा समाई हुई है।

    आबादी से अलग हटकर एक उदास और गुंजान झाड़ी है। वहाँ फूल बहुत कम खिलते हैं और जो खिलते हैं वे बेरंग और गंधहीन! पेड़ों पर धूमिल शोकावरण बिछा रहता है और जब पंछी चहकते हैं तो गुमान होता है कि वे कराह रहे हैं। झुटपुटे ही से टूटी-फूटी समाधियों पर जुगनू झिलमिलाने लगते हैं। कभी-कभी भूले भटके कोई किसी क़ब्र पर दिया रख जाता हो तो हो, वरना हर घरौंदे पर एक-आध जुगनूँ अपनी नीरव भाषा में मृत्यु-गान गाने लगता है और उसकी धुँधली-सी जोत अंधियारे में यूँ फैल जाती है जैसे मौत और ज़िंदगी के दोराहे पर आख़िरी हिचकी रास्ता ढूँढ रही हो।

    हसरतों और अरमानों की इस विभीषिका में मैं देर तक उस क़ब्र को ढूँढ़ता फिरा, जिसके नीचे मेरी मामा1 हमेशा के लिए सो रही है और जब मैं उसके पास पहुँचा तो यह भान हुआ कि यहाँ मेरा बचपन देर से सो रहा है।

    अँधेरा फैलता जाता था और सन्नाटा बढ़ता जाता था। क़ब्र कच्ची थी और उसके कोने धँस गए थे। उसकी दरारों से सिर निकाल कर दो-चार जंगली पौधे शोक-स्तंभों के समान चुप खड़े थे और तारों की ख़ामोशी का सबक़ दे रहे थे। वहीं दीमकों ने घर बना लिया था और क्या अजब कि मेरी बूढ़ी मामा की हड्डियों में उन्हें कुछ खाद्य सामग्री मिल गई हो।

    मेरे जीवन-ग्रंथ के ग़लतनामे में केवल एक शब्द है—‘कल’। मगर यहाँ आकर ऐसा लगा कि ‘कल’ की सीढ़ी पर चढ़कर मैं ‘आज’ की दीवार तक पहुँचा और यह सीढ़ी अतीत के अंधे कुँए में गिर पड़ी। अब न इस दीवार का ओर-छोर मिलता है और न नीचे उतरने का रास्ता बाक़ी है।

    जीवन एक विस्तृत डायरी के सिवा कुछ नहीं है। इसके कुछ पन्न लिखे जा चुके, कुछ और लिखे जाएँगे। फिर मृत्यु ‘इति’ लिखकर इस कहानी को इतिहास की रद्दी टोकरी में डाल देगी। तो भी इस खिलवाड़ को देखती आँखों से देखो तो इसमें दुनिया के चेहरे की हर रंग साफ़-साफ़ नज़र आती है। अगर मेरी क़लम में ताक़त हो तो मैं इन रंगों को लेकर जीवन की रूप-रेखा में ख़ून भर सकता हूँ।

    इस डायरी का प्रथम अध्याय मौत से शुरू होकर मौत पर ख़त्म होता है।

    मुझे याद है कि मैं बहुत छोटा था, शायद अपने पैरों पर खड़ा भी न हो सकता था। शीतकाल और संध्या वेला की बात है। मामी तवे पर रोटी सेंक रही थी और मैं उसके पास बैठा लालटेन की रौशनी में साबुन के पानी से बुलबुले निकालने की कोशिश कर रहा था।

    एकाएक सारा घर क्रंदन की गूँज से काँप उठा और मामी अपने हाथों को सारी से पोंछ कर बाहर भागी। मेरी समझ में बस इतना आया कि लोग किसी बात पर रो रहे हैं और समवेदना कहती है कि इनके साथ रोना चाहिए। चूल्हे के पास बैठकर मैं भी ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा; पर बुलबुलों का खेल इतना मनोरंजक था कि आँखों में आँसू न आए। बाहर इतना अंधेरा था कि अपने आसन से डोलने का साहस न हुआ। रोने-धोने का सिलसिला देर तक जारी रहा, यहाँ तक कि मेरा कौतूहल बहुत बढ़ गया।

    कुछ देर बाद कई औरतें आई और मुझे गोद में लेकर फूट-फूट कर रोने लगीं। इतना तो मैं भी समझ गया कि अम्मा की बीमारी से इनका कुछ संबंध है। संबंध किस प्रकार का है, यह मैं नहीं भाँप सका। सच तो यह है कि इतने लोगों को अपने लाड़-चाव में तत्पर पाकर मेरा हृदय अभिमान से फूल उठा।

    मुझे उस रात की सब बातें याद हैं। लकड़ी के एक संदूक़ में अम्मा का लिटाया जाना, मेरा उनके समीप जाकर कुछ पूछना, फिर मातम का हृदय-विदारक दृश्य! मैं केवल इतना समझा कि अम्मा इलाज के लिए कहीं गई हैं और अब मेरे लालन-पालन का कुछ भार मामा पर है। जहाँ तक याद पड़ता है, इस परिवर्तन से मुझे विशेष दुःख नहीं हुआ, क्योंकि मामा का सामीप्य मुझे अधिक पसंद था।

    मैं जिस टूटी क़ब्र के पास बैठा हूँ, उसमें सोने वाली बुढ़िया का चित्र मेरे हृदय में सदा खुदा रहेगा। उसके ज्योतिहीन नेत्र शून्य में न जाने किस बिछुड़े हुए को ढूँढ़ा करते थे। उसके दुर्बल हाथों का सहारा लेकर मैंने बचपन का कँटीला रास्ता तय किया है। उसकी लोरियों और कहानियों ने मेरी कल्पना को रंगीनी दी है।

    काल के निष्ठुर हाथ आयु की चादर को तह करते गए और फिर वे दिन आए, जब मामा को मर जाना था। बहुत दिनों से में प्रवास ग्रहण कर चुका था और कष्ट ने सहानुभूति से मुझे वंचित कर दिया था। अंतिम बार जब मैंने उसे देखा तो वह चलने-फिरने के योग्य न रही थी। अब वह हाड़-चाम की गठरी रह गई थी, जिसमें जीवन किसी भटकी हुई नाव के समान राह टटोल रहा था। यह अजीब बात थी कि दुनिया को में जितने पास से देखता जाता था, उससे उतनी घृणा बढ़ती जाती थी और मेरी मामा मौत की दीवार से टकरा कर ज़िंदगी की ओर भागने के लिए बेकार हाथ-पैर मार रही थी। जीवन से यह प्रेम मेरे लिए अप्रिय था। इसीलिए मैं उससे संवेदना के दो शब्द भी न कह सका। आज तक मैंने जितने पाप किए हैं, उन में यह सबसे हित था, क्योंकि मैं उसके उपकारों को भूल गया था।

    अब जो वह मर चुकी है तो मैं उसकी क़ब्र से यह कहने आया हूँ कि तेरे साथ मेरा बचपन भी दफ़न है। दोनों मुर्दा हैं, दोनों बेजान हैं। दोनों नींद से न जागेंगे, दोनों मेरी बातें न सुनेंगे, दोनों मेरे आँसुओं को न देखेंगे। इस बूढ़ी ने आँखें बंद की तो मानो, निस्स्वार्थ प्रेम की आँखें मुझपर बंद हो गई। मेरे शरीर का सारा ख़ून, उसकी आँखों के उस एक बूँद आँसू का बदला नहीं चुका सकता, जो अंतिम बिदा के समय उसकी सफ़ेद पलकों पर अटका हुआ था।

    स्रोत :
    • पुस्तक : अमिट रेखाएँ (पृष्ठ 216)
    • संपादक : सत्यवती मलिक
    • रचनाकार : अख्तर हुसैन रायपुरी
    • प्रकाशन : सत्साहित्य प्रकाशन
    • संस्करण : 1955

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