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राजमती का संदेश

rajamti ka sandesh

नरपति नाल्ह

नरपति नाल्ह

राजमती का संदेश

नरपति नाल्ह

 

गोरठी वइठी छइ पंडिया कइ आइ।
कर जोडी अरु लागुं ज पाइ।
राजमती करइ वीनती।
पंडिया कहिज्यो म्हारइ प्रीय नइ जाइ॥
डावां हाथ कउ मूंदडउ।
ढलिक करि आवइ हो जीमणी बांह॥

पंडिया जाइ कहे धण का नाह।
तइ मोनइ दीधी थी जीमणी बांह।
चंद सूरिज दुइ साखिया।
पवन पाणी अरु धरती आकासि।
धूप जयायउ थउ बंभणा।
हउ तउ मूवी हो स्वामी तणइ बेसासि॥

बालुं हो धणीय तुम्हारडउ जांण।
कठिन पयोहरां तिज्यउ परांण।
बालउ जोबन, पिसी गयउ।
जोबन के सिरि बांधिया नेत।
जिण बांधिया रावण षिस्यउ।
त्रिय कारणि राम बांधियउ सूरा सेत॥

 

गोरी (राजमती) आकर पंडित के घर बैठी है। वह कहती है- “हाथ जोड़कर मैं पाँव लगती हूँ।” राजमती विनती करती है- “हे पंडित! मेरे प्रियतम से जाकर कहना कि तुम्हारी स्त्री इतनी दुर्बल हो गई है कि उसके बाएँ हाथ की मुद्रिका ढलक कर ढीली होकर उसकी दाहिनी बाँह में आने लगी है।

हे पंडित! मेरे स्वामी से जाकर कहना कि आपकी स्त्री ने कहा है कि तुमने मुझे अपनी दाहिनी बाँह पकड़ाई थी, जब तुमने मेरा पाणिग्रहण किया था और उस पाणिग्रहण के दो साक्षी तो सूर्य और चंद्रमा थे... उसके अन्य साक्षी थे वायु, जल, धरती और आकाश। ब्राह्मण ने साक्षी में धूप-जगाया था। मैं तो तुम्हारे विश्वास में मारी गई।

तुम्हारी समझदारी को मैं आग लगा दूँ जिस के कारण मेरे कठिन पयोधरों ने प्राण त्याग कर दिए हैं (वे निर्जीव-से हो गए हैं) और मेरा बाल (नव) यौवन सूख चला है। यौवन के सिर पर मैंने शील का बंधन बाँध दिया है, जिस बंधन के बाँधने से रावण गिरा था। तनिक विचार करो, स्त्री के कारण ही शूर राम ने सेतु बाँधा था।”

स्रोत :
  • पुस्तक : बीसलदेव रास (पृष्ठ 166)
  • संपादक : अगरचंद नाहटा
  • रचनाकार : नरपति नाल्ह
  • प्रकाशन : हिंदी परिषद् प्रकाशक, प्रयाग
  • संस्करण : 1959

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