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त्यागराज

1767 - 1847 | तिरुवरुर, तमिलनाडु

त्यागराज की संपूर्ण रचनाएँ

उद्धरण 5

आपके सहारे के बिना कोई शरीर कैसे चल सकता है? आपके बिना कोई भी पौधा कैसे उग सकता है? आपके बिना कहीं भी पानी कैसे पड़ सकता है? आपके बिना यह त्यागराज आपका गुणगान कैसे कर सकता है?

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अनाथ मैं तो नहीं हूँ क्योंकि आप मेरे हैं। पर वास्तव में सनातन वैदिक विद्वानों के मुँह से सुना है कि आप अनाथ हैं, आपका कोई नहीं है।

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बुद्धि नहीं आएगी, बुद्धि नहीं आएगी यदि महान संतों की बात नहीं सुनोगे। बुद्धि नहीं आएगी, चाहे अनेक प्रकार की विद्या सीख लो।

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परख-निरख कर परमात्मा का रूप बार-बार देखो। वह 'हरि' भी कहलाता है और 'हर' भी। नर और सुर भी वह रहता है। अखिलांड भुवन में, जन-मन में, जलथल में, नभ में पवन, प्रकाश, चराचर जगत्, खग, नग, मृग, तरु, लताएँ, सब में वही सगुण-निर्गुण त्यागराज का आराध्य ईश्वर व्याप्त है।

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हे राम! तुम्हारा मन बहुत ही निश्चल और निर्मल है। पर मेरे मन में छल, कपट और चंचलता को देकर मुझे छोड़कर कहीं मत जाना।

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