शेखर जोशी की कहानियाँ
कोसी का घटवार
गुसाईं का मन चिलम में भी नहीं लगा। मिहल की छाँह से उठकर वह फिर एक बार घट (पनचक्की) के अंदर आया। अभी खप्पर में एक-चौथाई से भी अधिक गेहूँ शेष था। खप्पर में हाथ डालकर उसने व्यर्थ ही उलटा-पलटा और चक्की के पाटों के वृत्त में फैले हुए आटे को झाड़कर एक ढेर
गलता लोहा
मोहन के पैर अनायास ही शिल्पकार टोले की ओर मुड़ गए। उसके मन के किसी कोने में शायद धनराम लुहार के ऑफ़र की वह अनुगूँज शेष थी जिसे वह पिछले तीन-चार दिनों से दुकान की ओर जाते हुए दूर से सुनता रहा था। निहाई पर रखे लाल गर्म लोहे पर पड़ती हथौड़े की धप्-धप् आवाज़,
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere