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रत्नावली

1520 - 1594 | कासगंज, उत्तर प्रदेश

भक्तिकाल से संबद्ध ब्रजभाषा की कवयित्री। नीति-काव्य के लिए उल्लेखनीय।

भक्तिकाल से संबद्ध ब्रजभाषा की कवयित्री। नीति-काव्य के लिए उल्लेखनीय।

रत्नावली के दोहे

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जो जाको करतब सहज, रतन करि सकै सोय।

वावा उचरत ओंठ सों, हा हा गल सों होय॥

रतन बाँझ रहिबो भलौ, भले सौउ कपूत।

बाँझ रहे तिय एक दुष, पाइ कपूत अकूत॥

रतन दैवबस अमृत विष, विष अमिरत बनि जात।

सूधी हू उलटी परै, उलटी सूधी बात॥

उर सनेह कोमल अमल, ऊपर लगें कठोर।

नरियर सम रतनावली, दीसहिं सज्जन थोर॥

कुल के एक सपूत सों, सकल सपूती नारि।

रतन एक ही चँद जिमि, करत जगत उजियारि॥

रतन करहु उपकार पर, चहहु प्रति उपकार।

लहहिं बदलो साधुजन, बदलो लघु ब्यौहार॥

स्वजन सषी सों जनि करहु, कबहूँ ऋन ब्यौहार।

ऋन सों प्रीति प्रतीत तिय, रतन होति सब छार॥

तरुनाई धन देह बल, बहु दोषुन आगार।

बिनु बिबेक रतनावली, पसु सम करत विचार॥

भूषन रतन अनेक नग, पै सील सम कोइ।

सील जासु नैनन बसत, सो जग भूषण होइ॥

धिक मो कहँ बचन लगि, मो पति लह्यो विराग।

भई वियोगिनी निज करनि, रहूँ उड़वति काग॥

मुझे धिक्कार है, मेरे वचन लग जाने के ही कारण मेरे पति मेरे प्रति अनासक्त हो गए। इस प्रकार अपनी करनी से ही मैं वियोगिनी बनकर काक उड़ाती रहती हूँ।

सबहिं तीरथनु रमि रह्यौ, राम अनेकन रूप।

जहीं नाथ आऔ चले, ध्याऔ त्रिभुवन भूप॥

सभी तीर्थो में अनेक रूपों में राम रमण कर रहे हैं। हे नाथ! यहीं जाइए और त्रिभुवन भूप का यहीं ध्यान कीजिए।

परहित जीवन जासु जग, रतन सफल है सोइ।

निज हित कूकर काक कपि, जीवहिं का फल होइ॥

जगत् में उसी का जीवित रहना सफल है, जिसका जीवन परोपकार के लिए होता है। अपने लिए तो कुत्ता कौआ और बंदर भी जीते हैं। ऐसे जीवन से क्या लाभ?

छमा करहु अपराध सब, अपराधिनी के आय।

बुरी भली हों आपकी, तजउ लेउ निभाय॥

मुझ अपराधिनी के सारे अपराधों को आप छमा कीजिए। मैं बुरी हूँ या भली हूँ, जैसी भी हूँ आपकी हूँ, अतः मेरा त्याग कीजिए और मुझे निभा लीजिए।

जदपि गए घर सों निकरे, मो मन निकरे नाहिं।

मन सों निकरों ता दिनहिं, जा दिन प्रान नसाहिं॥

हे नाथ! यद्यपि आप गृह से निकल गए हैं, तथापि मेरे मन-मंदिर से नहीं निकले हैं। हे देव! मन से तो आप उसी दिन निकलेंगे, जिस दिन मेरे प्राण नाश को प्राप्त होंगे।

सनक सनातन कुल सुकुल, गेह भयो पिय स्याम।

रत्नावली आभा गई, तुम बिन बन सैम ग्राम॥

हे प्रिय! सनक ऋषि का सुकुल कुल अब श्याम हो गया है। मुझ रत्नावली की भी सभी प्रकार की कांति आपके बिना चली गई है और उसके लिए ग्राम भी, हे कांत! आपके बिना कांतार सम हो गया है।

दीन बंधु कर घर पली, दीनबंधु कर छांह।

तौउ भई हों दीन अति, पति त्यागी मो बाहं॥

मैं दीनबंधु पिता के घर में पली और दीनबंधु (दिनों के बंधु पूज्य पति तुलसी) के कर कमलों का आश्रय रहा। फिर भी मैं अत्यंत संतप्त हो गई क्योंकि पति (श्री तुलसीदास जी) ने मेरी बाँह छोड़ दी।

हों नाथ अपराधिनी, तौउ छमा करि देउ।

चरनन दासी जानि निज, वेगि भोरि सुधि लेउ॥

हे प्राणनाथ! मैं अपराधिनी नहीं हूँ। यदि आपकी दृष्टि में अपराधिनी हूँ, तो भी मुझे क्षमा कर दीजिए। अपने चरणों की दासी (अपनी भार्या) समझकर त्वरित ही मेरी सुध लीजिए।

जानि परै कहुं रज्जु अहि, कहुं अहि रज्जु लखात।

रज्जु रज्जु अहि-अहि कबहुं, रतन समय की बात॥

कभी तो रज्जु सर्प सी मालूम पड़ती है। कभी सर्प रज्जु जैसा भासित होता है, कभी रज्जु, रज्जु और सर्प जैसा ही ज्ञात होता है। यह सब समय की बात है।

रतन भाव भरि भूरि जिमि, कवि पद भरत समास।

तिमी उचरहु लघु पद करहि, अरथ गंभीर विकास॥

जिस प्रकार कवि लोग बहुत सा बहाव भर कर समास वाले पदों का प्रयोग करते हैं, उसी प्रकार तुम भी छोटे-छोटे पदों का उच्चारण करके गंभीर अर्थ का विकास करो।

पति सेवति रत्नावली, सकुची धरि मन लाज।

सकुच गई कछु पिय गए, सज्यो सेवा साज॥

मैं मन में लज्जा करती हुई पति की सेवा संकोच से करती। जब कुछ संकोच दूर हुआ, तब मेरे पति (श्री तुलसीदास) चले गए इसलिए मेरा पति-सेवा का साज सज सका।

हाय सहज ही हों कही, लह्यो बोध हिरदेस।

हों रत्नावली जँचि गई, पिय हिय काँच विसेस॥

मैंने अपनी बात स्वाभाविक ढंग से कही थी ,किंतु हृदयेश (तुलसीदास जी) ने इससे ज्ञान प्राप्त कर लिया। उस ज्ञान के प्रभाव से मैं उनके हृदय में काँच के समान प्रतीत हुई।

जे तिय पति हित आचरहिं, रहि पति चित अनुकूल।

लखहिं सपनेहूँ पर पुरुष, ते तारहिं दोउ कूल॥

जो नारियों पति की भलाई करती हुई उनके अनुकूल आचरण करती हैं और स्वप्न में भी पर पुरुष को नहीं देखती हैं, वे पिता एवं पति के दोनों कुलों का उद्धार करती हैं।

धरम सदन संतति चरित, कुल कीरति कुल रीति।

सबहिं बिगारति नारि इक, करि पर नर सों प्रीति॥

पराए पुरुष से प्रेम कर अकेली स्त्री ही धर्म, ग्रह, संतान का चरित्र, वंश, यश और कुल रीति इन सबको बिगाड़ देती है।

वैस बारहीं कर गह्यो, सोरहि गौन कराय।

सत्ताइस लागत करी, नाथ रतन असहाय॥

बारहवें वर्ष मेरे नाथ ने मेरा कर ग्रहण किया था, सोलहवीं वय में गौना कराकर लाए थे और सत्ताइस वर्ष के आरंभ में मुझे असहाय बना दिया अर्थात् मुझे छोड़ कर चले गए।

मोइ दीनो संदेस पिय, अनुज नंद के हाथ।

रतन समुझि जनि पृथक मोइ, जो सुमिरत रघुनाथ॥

मेरे प्रियतम तुलसीदास ने मुझे अपने भाई नंददास जी द्वारा संदेश दिया है कि हे रत्नावली, जो तू रघुनाथ जी का स्मरण करती है तो मुझे अपने से अलग मत समझ।

अनृत वचन माया रचन, रतनावलि बिसारी।

माया अनरित कारने, सति तजि त्रिपुरारि॥

झूठ बोलना और कपट करना छोड़ दो। भगवान ने इन दोनों कारणों से सति का परित्याग कर दिया था।

जाके कर में कर दयो, माता पिता भ्रात।

रतनावलि सह वेद विधि, सोइ कहयो पति जात॥

माता, पिता अथवा भाई द्वारा वेद-विहित विधि के अनुसार जिसके हाथ में कन्या का हाथ दिया जाए, वही पुरुष उसका पति कहा जाता है।

धिक सो तिय पर पति भजति, कहि निदरत जग लोग।

बिगरत दोऊ लोक तिहि, पावति विधवा जोग॥

उस स्त्री की धिक्कार है जो दूसरे पति की सेवा करती है। संसार में सब लोग उसकी निंदा करते हैं, उसके दोनों लोक बिगड़ जाते हैं और वैधव्य योग प्राप्त करती है।

जुबक जनक जामात सुत, ससुर दिवर अरु भ्रात।

इनहूं की एकांत बहु, कामिनी सुनि जनि बात॥

स्त्री को चाहिए कि वह पूर्ण एकांत में युवा पिता, जामाता, बेटा, ससुर, देवर, और भाई की भी अधिक बातें सुने। अकेले में इनके साथ बहुत देर बैठना भी नहीं चाहिए।

विपति कसौटी पै विमल, जासु चरित दुति होय।

जगत सराहन जोग तिय, रतन सती है सोय॥

जिसके चरित्र की कांति विपत्ति रूपी कसौटी पर निर्मल उतरती है, जगत् के सभी लोग उसकी प्रशंसा करते हैं वह सती पतिव्रता है।

बालहि सिख सिखाए अस, लखि-लखि लोग सिहाय।

आसिष दें हर्षें रतन, नेह करें पुलकाय॥

बच्चों को ऐसी शिक्षा दो कि लोग उसे देखकर सराहें, प्रसन्न हों, आशीर्वाद दें और रोमांचित होकर स्नहे करें।

रत्नावलि पति राग रंगि, दै विराग में आगि।

उमा रमा बड़ भगिनी, नित पति पद अनुरागि॥

तू पति के प्रेम- रंग में रंग और वैराग्य में आग लगा दे। भगवती पार्वती और लक्ष्मी भी पति चरणों के प्रेम में रंग कर ही बड़ी भाग्यशालिनी कहलाती हैं।

मात पिता सासु ससुर, ननद नाथ कटु बैन।

भेषज सैम रतनावलि, पचत करत तनु चैन॥

माता-पिता, सास-ससुर, ननद और पति के कटु वचन कड़वी औषधि के समान परिणाम में हितकारक होते हैं।

करहु दुखी जनि काहु को, निदरहु काहु कोय।

को जाने रत्नावली, आपनि का गति होय॥

कभी किसी को दुःखी मत करो और किसी का निरादर करो, कौन जानता है कि अपनी क्या गति आगे होगी।

पति सनमुख हँसमुख रहित, कुसल सकल ग्रह काज।

रतनावलि पति सुखद तिय, धरति जुगल कुल लाज॥

जो स्त्री पति के सामने सदा हँसमुख रहती है घर के सभी कामों में चतुर होती है, वह पति को सुख देने वाली तथा (पति-पितु-कुल) दोनों कुलों की लज्जा रखने वाली होती है।

सुभहु वचन अप्रकृति गरल, रतन प्रकृति के साथ।

ज्यों मो कहं पति प्रेम संग, ईस प्रेम की गाथ॥

प्रकरण के साथ प्रकरण विरुद्ध उत्तम वचन भी विष तुल्य हो जाता है। पति प्रेम की प्रशंसा में प्रकरण विरुद्ध प्रभु का वर्णन करने के कारण मेरा वचन विषवत् हो गया अर्थात् मेरे पति तुलसीदास ने वैराग्य धारण कर मुझे त्याग दिया।

वनिक फेरुआ भिछु कण, जनि कबहुं पतिआय।

रत्नावलि जेइ रूप धरि, ठगजन ठगत भ्रमाय॥

वणिक, फेरी लगाने वाले और भिखारियों का कभी विश्वास मत करो क्योंकि ठग लोग यह वेष धारण कर भ्रम में डालकर ठग लेते हैं।

सदन भेद तन धन रतन, सुरति सुभेषज अन्न।

दान धरम उपकार तिमी, राखि वधू परछन्न॥

हे बहू, तू अपनी इन बातों को गुप्त रख। घर का भेद, शरीर, धन, पतिसंगविहार, औषध, भोजन सामग्री, दान, पुण्य कार्य और परोपकार।

तिय जीवन ते मन सरिस, तौलों कछुक रुचै न।

पिय सनेह रस राम रस, जौ लौ रतन मिलै न॥

स्त्री का जीवन शाक के समान है, जब तक उसमें पति प्रेम रूपी नमक नहीं मिलता, तब तक वह अच्छा नहीं लगता है।

भीतर बाहर एक से, हितकर मधुर सुहाय।

रत्नावलि फल दाख से, जन कहूँ कोउ लखाय॥

अंगूर की तरह का मनुष्य तो कोई बिरला ही दिखाई देते हैं, जो भीतर-बाहर एक-से मधुर होते हैं।

सुबरन पिय संग हों लसी, रत्नावलि सम काँचु।

तिही बिछुरत रत्नावलि, रही काँचु अब साँचु॥

मैं रत्नावली कांच के समान होते हुए भी पति के साथ स्वर्ण के समान शोभाशाली थी, किंतु उनके वियोग होने पर तो अब मैं कांच ही रह गई।

पति पद सेवा सों रहित, रतन पादुका सेई।

गिरत नाव सों रज्जु तिही, सरित पार करि देइ॥

यदि तू पति की सेवा से वंचित है तो उनकी खड़ाऊँ की सेवा कर। नाव से गिरा हुआ आदमी नाव की रस्सी को पकड़ लेता है तो वह रस्सी भी उसे पार कर देती है।

सुवरन मय रतनावलि, मनि मुक्ता हारादि।

एक लाज विनु नारि कहँ, सब भूषण जग बादि॥

स्वर्णयुक्त मणि मुक्तादि के हारादि भी स्त्री के लिए तब तक व्यर्थ हैं जब तक उसमें एकमात्र लज्जा का, शील का भूषण नहीं है।

पति पितु जननी बंधु हित, कुटुम परोसि विचारि।

जथा जोग आदर करे, सो कुलवंती नारि॥

वही स्त्री कुलीन होती है जो पति, पिता, माता, कुटुंब और पड़ोसी का विचारपूर्वक आदर करती है।

भल चाहत रत्नावलि, विधि बस अन भल होइ।

हों पिय प्रेम बढ्यौ चह्यौ, दयो मूल ते खोइ॥

मानव अपना भला चाहता है परंतु विधि की परवशता से बुरा हो जाता है। मैं अपने ऊपर अपने पति (तुलसीदास) का प्रेम बढ़ा हुआ देखना चाहती थी किंतु उसे जड़ सहित ही उखाड़ कर नष्ट कर दिया।

पति के जीवन निधन हू, पति अनिरुचत काम।

करति सो जग जस लहति, पावति गति अभिराम॥

पति के जीवन काल में या मृत्यु के उपरांत जो स्त्री उनकी इच्छा के प्रतिकूल काम नहीं करती है, वही संसार में यश और सुंदर गति को प्राप्त करती है।

एकु-एकु आखरु लिखे, पोथी पूरति होइ।

नेकु धरम तिमी नित करो, रत्नावलि गति होइ॥

जिस प्रकार एक-एक अक्षर लिखने से पुस्तक पूर्ण हो जाती है, उसी प्रकार नित्यप्रति थोड़ा-थोड़ा धर्म करने से भी सद्गति का लाभ होता है।

जो तिय संतति लोभ बस, करति अपन नर भोग।

रतनावलि नरकहि परति, जग निदरत सब लोग॥

जो स्त्री संतान की कामना से पराए पुरुष से संपर्क करती है, वह नरक में पड़ती है और सब लोग उसकी निंदा करते हैं।

करमचारि जन सों भली, जथा काज बतरानि।

बहु बतानि रतनावलि, गुनि अकाज की खानि॥

नौकरों से आवश्कतानुसार ही वार्तालाप करने में भलाई है, इनसे बहुत बोलना बुराई की खान समझना चाहिए।

जे निज जे पर भेद इमि, लघु जन करत विचार।

चरित उदारन को रतन, सकल जगत परिवार॥

यह अपना है, यह पराया है। इस प्रकार का विचार तुच्छ व्यक्ति करते हैं, उदार चरित वाले तो सारी पृथ्वी को ही अपना कुटुंब समझते हैं।

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