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रसखान

1548 - 1628 | हरदोई, उत्तर प्रदेश

कृष्ण-भक्त कवि। भावों की सरस अभिव्यक्ति के लिए ‘रस की खान’ कहे गए। सवैयों के लिए स्मरणीय।

कृष्ण-भक्त कवि। भावों की सरस अभिव्यक्ति के लिए ‘रस की खान’ कहे गए। सवैयों के लिए स्मरणीय।

रसखान के दोहे

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प्रेम प्रेम सब कोउ कहै, कठिन प्रेम की फाँस।

प्रान तरफि निकरै नहीं, केवल चलत उसाँस॥

प्रेम हरी को रूप है, त्यौं हरि प्रेम स्वरूप।

एक होइ द्वै यो लसै, ज्यौं सूरज अरु धूप॥

अति सूक्षम कोमल अतिहि, अति पतरो अति दूर।

प्रेम कठिन सब ते सदा, नित इकरस भरपूर॥

पै मिठास या मार के, रोम-रोम भरपूर।

मरत जियै झुकतौ थिरै, बनै सु चकनाचूर॥

इक अगी बिनु कारनहिं, इक रस सदा समान।

गनै प्रियहि सर्वस्व जो, सोई प्रेम प्रमान॥

मन लीनो प्यारे चितै, पै छटाँक नहिं देत।

यहै कहा पाटी पढ़ी, दल को पीछो लेत॥

प्रेम प्रेम सब कोउ कहत, प्रेम जानत कोइ।

जो जन जानै प्रेम तौ, परै जगत क्यौं रोइ॥

कहा करै रसखानि को, कोऊ चुगुल लवार।

जो पै राखनहार है, माखन चाखनहार॥

जोहन नंदकुमार कों, गई नंद के गेह।

मोहि देखि मुसिकाइ कै, बरस्यो मेह सनेह॥

सास्रन पढि पंडित भए, कै मौलवी क़ुरान।

जुपै प्रेम जान्यौ नही, कहा कियौ रसखान॥

मो मन मानिक लै गयो, चितै चोर नँदनंद।

अब बेमन मैं का करूँ, परी फेर के फंद॥

स्याम सघन घन घेरि कै, रस बरस्यौ रसखानि।

भई दिवानी पान करि, प्रेम मद्य मनमानि॥

मोहनछबि रसखानि लखि, अब दृग अपने नाहिं।

अँचे आवत धनुष से, छूटे सर से जाहिं॥

सजनी लोनो लला, लह्यो नंद के गेह।

चितयो मृदु मुसिकाइ के, हरी सबै सुधि गेह॥

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