रसखान की संपूर्ण रचनाएँ
दोहा 14
प्रेम प्रेम सब कोउ कहै, कठिन प्रेम की फाँस।
प्रान तरफि निकरै नहीं, केवल चलत उसाँस॥
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प्रेम हरी को रूप है, त्यौं हरि प्रेम स्वरूप।
एक होइ द्वै यो लसै, ज्यौं सूरज अरु धूप॥
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अति सूक्षम कोमल अतिहि, अति पतरो अति दूर।
प्रेम कठिन सब ते सदा, नित इकरस भरपूर॥
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पै मिठास या मार के, रोम-रोम भरपूर।
मरत जियै झुकतौ थिरै, बनै सु चकनाचूर॥
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इक अगी बिनु कारनहिं, इक रस सदा समान।
गनै प्रियहि सर्वस्व जो, सोई प्रेम प्रमान॥
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