तुम्हारा हर काम और हर खेल मग़रिबी (पश्चिमी) है, तुम हारे तो क्या और जीते तो क्या! बल्कि दुःख तो ये है कि तुम उनकी नक़ल उतारने में कभी-कभी जीत भी जाते हो।
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एक शख़्स अपनी ख़ुशी के लिए दूसरे का दिल दुखाता है।
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जिस शख़्स से बुराई सरज़द (घटित) होती है, वो अपनी बुराई में तिहाई का ज़िम्मेदार है, बाक़ी की ज़िम्मेदारी उस समाज पर है जिसकी बुनियाद इस पर रखी गई है।
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मुशायरा एक ऐसा ख़तरनाक हंगामा है जिसमें शाइर की इज़्ज़त लम्हा-लम्हा ख़तरे की ज़द में रहती है।
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हमें रोज़-मर्रा की ज़िंदगी में न किसी फ़लसफी की ज़रूरत पेश आती है, न किसी शाइर की… फिर समाज उनकी हैसियत को भला किसलिए तस्लीम करे।