गिरिधारन की संपूर्ण रचनाएँ
दोहा 17
उद्यम में निद्रा नहीं, नहिं सुख दारिद माहिं।
लोभी उर संतोष नहिं, धीर अबुध में नाहिं॥
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अति चंचल नित कलह रुचि, पति सों नाहिं मिलाप।
सो अधमा तिय जानिये, पाइय पूरब पाप॥
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उद्यम कीजै जगत में, मिले भाग्य अनुसार।
मोती मिले कि शंख कर, सागर गोता मार॥
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लोभ न कबहूं कीजिये, या में विपति अपार।
लोभी को विश्वास नहिं, करे कोऊ संसार॥
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सुख में संग मिलि सुख करै, दुख में पाछो होय।
निज स्वारथ की मित्रता, मित्र अधम है सोय॥
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