दीनदयाल गिरि की संपूर्ण रचनाएँ
दोहा 202
खल जन को विद्या मिलै, दिन-दिन बढ़ै गुमान।
बढ़ै गरल बहु भुजंग कों, जथा किये पयपान॥
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गये असज्जन की सभा, बुध महिमा नहिं होय।
जिमि कागन की मंडली, हंस न सोहत कोय॥
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तहाँ नहीं कछु भय जहाँ, अपनी जाति न पास।
काठ बिना न कुठार कहुँ, तरु को करत बिनास॥
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बड़े बड़न के भार कों, सहैं न अधम गँवार।
साल तरुन मैं गज बँधै, नहि आँकन की डार॥
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साधुन की निंदा बिना, नहीं नीच बिरमात।
पियत सकल रस काग खल, बिनु मल नहीं अघात॥
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