भगवत रसिक की संपूर्ण रचनाएँ
दोहा 12
काया कुंज निकुंज मन, नैंन द्वार अभिराम।
‘भगवत' हृदय-सरोज सुख, विलसत स्यामा-स्याम॥
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‘भगवत' जन चकरी कियो, सुरत समाई डोर।
खेलत निसिदिन लाड़िली, कबहुँ न डारति तोर॥
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छके जुगुल-छबि-बारुनी, डसे प्रेमवर-व्याल।
नेम न परसै गारुडी, देख दुहुँन की ख्याल॥
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निसिबासर, तिथि मास, रितु, जे जग के त्योहार।
ते सब देखौ भाव में, छांडि जगत व्यौहार॥
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जप तप तीरथ दान ब्रत, जोग जग्य आचार।
‘भगवत' भक्ति अनन्य बिनु, जीव भ्रमत संसार॥
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