बालकृष्ण भट्ट के व्यंग्य
पत्नीस्तव
हे महाराणी पत्नी तुम्हें नमस्कार है, तुम संसार का बंधन महा-जगड़वाल की मूलाधार हो। एक बार विवाह कर तुम्हारे जाल में फँस जाना चाहिए फिर क्या सामर्थि कि इस छंदान को तोड़ कोई कहीं भाग सके! यह तुम्हारी ही कृपा है कि आदमी एक जोरू कर खुद संसार भर की जोरू आप बनाता
मेला-ठेला
मसल है- ‘‘काज़ी काहे दुबले शहर के अंदेशे’’ जमाने भर की फिकिर अपने ऊपर ओढ़े कुढंगों के कुढंग से कुढ़ते हुए मनीमन चूरंचूर नहूसत का बोझ सिर पर लादे पंच महाराज उदासीन घर बैठे रहा करते थे। आज न जानिये क्यों मेला देखने का शौक चरार्या तो दो घड़ी रात
कौआपरी और आशिकतन
आज हमारे पंचमहाराज गोपियों में कन्हैया के परतो पर कौआपरियों के बीच आशिकतन बनने की ख़्वाहिश मन में ठान भोर ही को घर से चल पड़े— ‘‘मन लगा गधी से तो परी क्या चीज़ है’’ यह मत समझो हमारे पंचमहाराज आशिकतनी में किसी से पीछे हटे हुए हैं।
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere