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केलि-विलास (शिशिर)

keli wilas (shishir)

चंदबरदाई

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चंदबरदाई

केलि-विलास (शिशिर)

चंदबरदाई

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    रोमाली वन नीर निघ्घ वरये गिरि डंग नारायते।

    पव्वय पीन कुचानि जानि सयला फुंकार झुंकारये।

    शिशिरे सर्वरि वारुणे विरहा मम हृदय विद्दारये।

    मा कांत मृगवध्ध सिंघ गमने किं देव उव्वारये॥

    संयोगिता पृथ्वीराज से कहती है कि मेरी रोमावली ही वन है, श्रेष्ठ स्नेह-नीर ही गिरि और द्रंग की जल की धारा है। मेरे पीन कुच मानो समस्त पर्वत हैं और मेरी जो सीत्कार है वही मानो पवन का झकोर है। शिशिर की रात्रि में विरह ही वह हाथी है जो मेरे हृदय-वाटिका को तहस-नहस कर रहा है। उस विरह रूपी मृग का वध करने वाले सिंह, हे कांत! तुम मत जाओ। हे देव! क्या नारी के हृदय को इस विरह-वारण से उबारोगे!

    स्रोत :
    • पुस्तक : पृथ्वीराज रासउ (पृष्ठ 249)
    • रचनाकार : चंदबरदाई
    • प्रकाशन : साहित्य-सदन चिरगाँव (झाँसी)
    • संस्करण : 1963

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