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नाहि करब बर हर निरमोहिया

nahi karab bar har nirmohiya

विद्यापति

अन्य

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विद्यापति

नाहि करब बर हर निरमोहिया

विद्यापति

और अधिकविद्यापति

    नाहि करब बर हर निरमोहिया।

    बित्ता भरि तन बसन तिन्हका बघछल काँख तर रहिया॥

    बन-बन फिरथि मसान जगावथि घर आंगन बनौलन्नि कहिया।

    सास ससुर नहिं ननद जेठौनी जाए बैठति धिया केकरा ठहिया॥

    बढ़ बरद, ढकढोल मोल एक, संपति भाँगक झोरिया।

    भनइ विद्यापति सुन हे मनाइन सिब सन दानि जगत के कहिया॥

    मैना अपनी सखी-से कहती है कि मैं निर्मोही शिव को अपनी पुत्री का वर नहीं बनाऊँगी। उसके शरीर पर एक बलिश्त भर भी वस्त्र नहीं है, उसके पास तो केवल एक बाघांबर है जो काँख के नीचे दबा रहता है। वह शिव जंगल-जंगल में फिरता हुआ मसान जगाता फिरता है, इसने कोई घर आँगन भी नहीं बनाया। इस शिव के परिवार में कोई सदस्य नहीं। सास, श्वसुर, ननद, जिठानी से विहीन शिव के घर में मेरी कन्या किसके पास बैठे-उठेगी! संपत्ति के रूप में शिव के पास एक बूढ़ा-सा बैल और गोल-मटोल डमरू तथा भाँग रखने की एक थैली है। अंत में विद्यापति कहते हैं (कि सखी कहती है) कि हे मैना! सुनो, शिव के समान दानी इस अखिल सृष्टि में कहीं कोई नहीं है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : विद्यापति का अमर काव्य (पृष्ठ 136)
    • संपादक : गोपालाचार्य 'पराग'
    • रचनाकार : विद्यापति
    • प्रकाशन : स्टूडेंट स्टोर बिहारीपुर बरेली
    • संस्करण : 1965

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