मन्त ण तन्त ण धेअ ण धारण

mant .n tant .n dhe. .n dhaara.n

सरहपा

सरहपा

मन्त ण तन्त ण धेअ ण धारण

सरहपा

मंत तंत धेअ धारण।

सव्ववि रे बढ़ वि (ब्) भम−कारण॥

असमल चीअ झाणें खरडह।

सुह अच्छंतें अप्पण झगडह॥

गुरु−वअण−अमिअ−रस, धवहि पिविअउ जहिं।

बहुत सात्यात्य−मरुत्थलिहिं, तिसिअ मरिब्बो त्तेहिं॥

ये मंत्र और तंत्र ध्येय हैं और ही धारण करने योग्य ही। रे मूर्ख! तुम इसे भ्रम के कारण ही अपनाते हो, इसलिए यदि चित्त स्वच्छ नहीं है तो ध्यान व्यर्थ है। इसलिए सरह कहते हैं विषम चित्त द्वारा ध्यान नहीं होता है, सुखी होने पर अपनों से झगड़ा नहीं करना चाहिए। गुरु के वचन में अमृत रस होता है, जो दौड़कर इसे नहीं पीते वे बहुत से शास्त्रों के मरुस्थल पर होकर प्यासे मरते हैं। अर्थात् बिना गुरु के शास्त्र भी ज्ञान−प्राप्ति के साधक नहीं बनते।

स्रोत :
  • पुस्तक : दोहाकोश; भाषा वैज्ञानिक अध्ययन (पृष्ठ 32)
  • रचनाकार : डॉ० रमाइंद्र कुमार
  • प्रकाशन : माँ पार्वती बैजनाथ प्रकाशन
  • संस्करण : 1993

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