निर्गुन कौन देस को वासी

nirgun kaun des ko wasi

सूरदास

सूरदास

निर्गुन कौन देस को वासी

सूरदास

निर्गुन कौन देस को बासी?

मधुकर! हँसि समुझाय, सौंह दै बूझति, साँच, हाँसी॥

को है जनक, जननि को कहियत, कौन नारि, को दासी?

कैसो बरन, भेस है कैसो केहि रस कै अभिलासी॥

पावैगो पुनि कियो अपनो जो रे! कहैगो गाँसी॥

सुनत कौन ह्वै रह्यो ठग्यो सो सूर सबै मति नासी॥

गोपियाँ कहती हैं कि हे उद्धव, भला हमें यह तो बताइए कि तुम्हारा वह निर्गुण ब्रह्म किस देश का निवासी है। हे भ्रमर, सच में, हम क़सम खाकर पूछ रही हैं, मज़ाक तुमसे नहीं कर रही हैं। हमें तुम हँसकर समझा दो कि निर्गुण ब्रह्म का कौन पिता है और इसकी माता कौन है? इसकी स्त्री कौन है और कौन इसकी दासी है? इसका रंग कैसा है, कैसी इसकी वेश-भूषा है और किस रस में यह डूबा रहता है? हे उद्धव, अब ज़्यादा जले-भुने की बात मत करो नहीं तो तुम्हें अपनी करनी का फल भी मिल जाएगा। सूरदास कहते हैं कि गोपियों की ऐसी बातों को सुनकर उद्धव ठगे से चुप हो गए, उनसे कुछ कहते नहीं बना।

स्रोत :
  • पुस्तक : भ्रमरगीत सार (पृष्ठ 83)
  • रचनाकार : आचार्य रामचंद्र शुक्ल
  • प्रकाशन : लोकभारती
  • संस्करण : 2008

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