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गाइ खिलावत सोभा भारी

gai khilawat sobha bhari

नंददास

अन्य

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नंददास

गाइ खिलावत सोभा भारी

नंददास

और अधिकनंददास

    गाइ खिलावत सोभा भारी।

    गो रज-रंजित बदन-कमल पै, अलक झलक घुंघरारी।

    नख-सिख प्रति बहु मोल के भूषन, पहिरत सदा दिवारी।

    फैलि रही है खिरक-सभा पै नगन-रंग उजियारी।

    सम-कन राजैं भाल-गंड-भ्रू इहि छबि पै बलिहारी।

    सवन हेरि नव, अंचल चंचल, चढ़ति सु अटा-अटारी।

    भीर बहुत सुभई जात की मड़हन पे ब्रजनारी।

    सैननि में समुझावत सगरी धनि-धनि निरखनहारी।

    रहे खिलाइ धूमरी धौरी, गाय गुनन कजरारी।

    नंददास प्रभु चले सदन जब एक बार हुंकारी॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : अष्टछाप कवि : नंददास (पृष्ठ 94)
    • संपादक : सरला चौधरी
    • रचनाकार : नंददास
    • प्रकाशन : प्रकाशन विभाग सूचना और प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार
    • संस्करण : 2006

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