कि कहब है सखि आजुक विचार

ki kahab hai sakhi aajuk wichar

विद्यापति

विद्यापति

कि कहब है सखि आजुक विचार

विद्यापति

कि कहब है सखि आजुक विचार।

से सुपुरुष मोहि कएल सिंगार(?)॥

हँसि-हँसि महु आलिंगन देल।

मनमथ अंकुर कुसुमित भेल॥

आँचर परसि पयोधर हेरु।

जनम पंगु जनि भेटल सुमेरु॥

जब निबि-बंध खसाओल कान।

तोहर समथ हम किछु नहि जान॥

रति-चिन्हे जानल कठिन मुरारि।

तोहर पुने जीअलि हमे नारि॥

कह कवि-रंजन सहज मधुराई।

कह सुधामुखि गेल चतुराई॥

सखी, क्या बतलाऊँ तुझसे? रात उसने अपने हाथों से मेरा शृंगार किया... वह बीच-बीच में हँस पड़ता था, मुझे सीने से लगा लेता था। मन्मथ (कामदेव) अब तक अंकुर-रूप में था, अब उसमें फूल गए। उसने आँचल उठाकर मेरे स्तनों को बार-बार निहारा। लगा कि लँगड़े को सुमेरु हाथ लग गया है। मेरा कटिबंध ढीला करके जब उसने वस्त्र को नीचे खिसक जाने दिया, तो क़सम तेरी, फिर क्या हुआ, पता नहीं? बाद में काम-केलि के गहरे निशान देखकर ही मैं मुरारि की मर्दानगी जान सकी! यह तेरा ही पुण्य था कि मैं ज़िंदा निकल आई। कविरंजन विद्यापति कहता है—“राधा तो सहज ही मीठी है। उस अमृतमुखी की चतुराई के बारे में कुछ कहना ही ठीक रहेगा।”

स्रोत :
  • पुस्तक : विद्यापति के गीत (पृष्ठ 96)
  • रचनाकार : विद्यापति
  • प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
  • संस्करण : 2011

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