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माधव, हम परिनाम निरासा

madhaw, hum parinam nirasa

विद्यापति

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विद्यापति

माधव, हम परिनाम निरासा

विद्यापति

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    माधव, हम परिनाम निरासा।

    तोहे जगतारन दीन दयाराम अतए तोहर बिसबासा॥

    आध जनम हम नींद गमाओल जरा सिसु कत दिन गेला।

    निधुबन रमनि-रभस रंग मातल तोहि भजब कोन बेला॥

    कत चतुरानन मरि मरि जाएत तुअ आदि सवसाना।

    तोहि जनमि पुनु तोहि समाएत सागर लहरि अमाना॥

    भनइ विद्यापति सेष समन भय तुअ बिनु गति नहि आरा।

    तोहें अनाथक नाथ कहाओसि तारन भार तोहारा॥

    माधव, जीवन के अंत में मुझे निराशा-ही-निराशा नज़र रही है। तुम दयालु हो। जगतारन हो! इसी से मुझे तुम्हारा विश्वास है। आधी ज़िंदगी मैंने सोकर गँवा दी है। बुढ़ापा और बचपन ने जाने कितने ही दिन छीन लिए होंगे! बची हुई आयु मैंने स्त्रियों के साथ रंगरेलियाँ मनाते हुए खो दी। तुम्हारे भजन-ध्यान के लिए मेरे पास अब कौन-सी बेला रह गई है? कितने विधाता मर-मर जाएँगे! वे तुम्हारा आदि-अंत नहीं पाएँगे। तुम्हारे में पैदा होकर वे फिर तुम्हारे ही अंदर समा जाएँगे, जैसे समुद्र में उठने वाले ज्वार फिर से समुद्र के अंदर विलीन हो जाते हैं। विद्यापति कहते हैं—“मेरे अंतिम भय को तुम्हीं हटाओगे। तुम्हारे, सिवा मेरा कोई और नहीं है। तुम अनाथों के नाथ कहलाते हो, उबारने का भार तुम्हारे ही ऊपर रहा।”

    स्रोत :
    • पुस्तक : विद्यापति के गीत (पृष्ठ 143)
    • रचनाकार : विद्यापति
    • प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
    • संस्करण : 2011

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